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श्रीविपाकसूत्रीय द्वितीय श्रुतस्कन्ध
[प्रथम अध्याय
किंनामर वा, कि वा गोएणं, कयरंसि वा 'गामंलि वा, नारंसि वा, निगमंसि वा, रायहाणीर वा, खेडंसि वा, कबडंसि वा, मडंवंसि वा, पट्ट पंसि वा, दोण बुहं स वा. प्रागरंसि वा, आससि वा, संवाहंसि वा, संनिवेसंसि वा, किं वा दचा, किं वा भाचा, किंवा किया, किंवा समापरि ता, कस्स वा तहारुवस्स समग्णस्त वा माहणस्त वा अंतिए एगमवि पारियं सुवयणं सोचा णिसम्म सुबाहुकुमारेणं इमा एयारूवा उराला माणुसिड्ढी लद्धा ?, पत्ता, अभिसमन्नागया ? --इन पदो का ग्रहण करना चाहिये। इन पदों का भावार्थ इस प्रकार है
भगवन् ! यह पूर्वभव में कौन था ? इस का नाम और गोत्र क्या था?, किस ग्राम, नगर, निगम, राजधानी, खेट, कर्वट, मडम्ब, पट्टन, द्रोणमुख, प्राकर, आश्रम, संवाध तथा किस संनिवेश में कौन सा दान दे कर, क्या भोजन कर, कौन सा आचरण करके, किस तथारूप (विशिष्टशानी) भमण या माहन (श्रावक)२ से एक भी प्रार्य वचन सुन कर और हृदय में धारण कर सुवाहुकुमार ने इस प्रकार की यह उदार-महान् मानवी समृद्धि को उपलब्ध किया ? प्राप्त किया और उसे यथारूचि उपभोग्य - उपभोग के योग्य बनाया अर्थात् वह उस के यथेष्टरूप से उपभोग में आरही है ?
इस प्रश्नावली में बहुत सी मौलिक सैद्धान्तिक बातों का समावेश हुआ प्रतीत होता है । अत: प्रसंगवश उन का विचार कर लेना भी अनुचित नहीं होगा संक्षेप से गौतम स्वामी के प्रश्नों को आठ भागों में विभक्त किया जा सकता है -१-यह पूर्वभव में कौन था ?, २ -इस का नाम क्या था १, ३-इस का गोत्र क्या था, ४- इस ने क्या दान दिया था १.५- इस ने क्या भोजन किया था 1.8-इस ने क्या कृत्य किया था ।, ७-इस ने क्या आचरण किया था ।, ८-इस ने किस तथारूर महात्मा की वाणी सुनो है, अर्थात् इस ने क्या सुना है ? ____ इन में नाम और गोत्र का पृथक २ निर्देश सप्रयोजन है। एक नाम के अनेक व्यक्ति हो सकते हैं। उन की व्यावृत्ति के लिये गोत्र का निर्देश करना भी परम आवश्यक है । इसी विचार से गौतम स्वामी ने नाम के बाद गोत्र का प्रश्न किया है । गोत्र कुल या बंश की उस संशा को कहते हैं जो उस के मूलपुरुष के अनुसार होती है।
चौथा प्रश्न दान से सम्बन्ध रखता है अर्थात् सुबाहुकुमार ने पूर्वभव में ऐसा कौन सा दान किया था ? जिस के फलस्वरूप उसे इस प्रकार की लोकोत्तर मानवी विभूति की संप्राप्ति हुई है ?, गौतम स्वामी के इस प्रश्न में दान की महानता तथा विविधता प्रतिबोधित की गई है । जैनशास्त्रों में दस प्रकार के दान प्रसिद्ध हैं। उन का नामनिर्देशपूर्वक अर्थसम्बन्धी उहापोह इस प्रकार है -
(१) १-ग्रसते बुयादीन गुणान् यदि वा गम्पः-शास्त्रप्रसिद्वानामष्टादशानां कराणामिति प्रामः । २-न विद्यते करो यस्मिन् तमगरम् । ३-निगमः -प्रभूततरवणिगवर्गवासः । ४ - राजाधिष्ठान नगरं राजधानी। ५-प्रांशुप्राकारनिबद्धं खेटम् । ६-खुल्लप्राकारवेष्ठितं कवटम् । ७-अर्धगव्यूततृतीयान्तनामान्तररहितं मडम्बम् । ८-पन-जलस्थलनिर्गमप्रदेशः, (पटनं शकटः गम्यं घोटकैः नौभिरेव च । नौभिरेव तु यद्गम्यं पत्तनं तत्प्रचक्षते ), ९-द्रोणमुखं -जलनिर्गमप्रवेशं पत्तनमित्यर्थः । १० -श्राकरो हिरण्याकरादिः । ११-आश्रमः तापसावसथोपलक्षित: आश्रमविशेषः । १२-संवाधो यात्रासमागतप्रभूतजननिवेशः । १३ - संनिवेश:- तथाविधप्राकृतलोकनिवासः ।
(राजप्रश्नीयसूत्रे वृत्तिकारो मलयगिरिसूरः) (२) श्रावक-गृहस्थ को भी धर्मोपदेश-धम सम्बन्धी व्याख्यान करने का अधिकार प्राप्त है, यह बात इस पाठ से भलीभान्ति सिद्ध हो जाती है।
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