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प्रथम अध्याय
हिन्दी भाषा टीका सहित।
अभिप्राय है कि सुबाहुकुमार ने विशुद्ध मनोवृत्ति से ऐसा कौन सा पुण्यजनक कृत्य किया ? जिस के कारण आज वह प्रत्यक्षरूप में जगद्वल्लभ बना हुश्रा है ?
सातवां प्रश्न उस के समाचरण - शीलसम्बन्धी है । अर्थात् सुबाहुकुमार ने ऐसे कौन से शीलव्रत का अाराधन या अनुष्ठान किया है, जिस के प्रभाव से उम को ऐसी सर्वोच्च मानवता की प्राप्ति हुई है १ आजकल शील शब्द का व्यवहार बहुत संक चित अर्थ में किया जाता है । उस का एक मात्र अर्थ पुरुष के लिए स्त्रीसंगग का त्याग ही समझा जाता है, परन्तु वास्तव में ऐसा नहीं है । उस की अर्थ परिधि इस से बहुत अधिक व्यापक है । "स्त्रोसंसर्ग का त्याग" यह शील का मात्र एक अांशिक अर्थ है । इस से अतिरिक्त अर्थों में भी वह व्यवहत होता है। समुच्चयरूप से उस का अर्थ निषिद्ध बुरे कामों से निवृत्त होना और विहित-अच्छे कामों में प्रवृत्ति करना है। अर्थात् शास्त्रग हित हिंसा झूठ, चोरी, व्यभिचार, घूत और मदिरापानादि से निवृत्त होना
और शास्त्रानुमोदित-अहिंसा, सत्य, अस्तेय और स्वस्त्र सन्तोष एवं सत्संग और शास्त्रस्वाध्याय आदि में प्रवृत्ति करना शील कहलाता है। परस्त्रीयाग और स्वस्त्रीसन्तोष तो शील के अनेक अर्थों में से दो है। इतना मात्र आचरण करने वाला शीलव्रत के मात्र एक अंग का आराधक माना जा सकता है, सम्पूर्ण का नहीं।
गौतम स्वामी का आठवां प्रश्न श्रवण के सम्बन्ध में है। अर्थात् उस ने ऐसे कौन से कल्याणकारी वचनों का श्रवण किया है जिन के प्रभाव से उस को इस प्रकार को लोकोत्तर कीर्ति का लाभ एवं संप्राप्ति हुई है। इस कथन से त्यागशील धर्मपरायण मुनिजनों या गुरुजनों का बड़ा महत्त्व प्रदर्शित होता है, कारण कि धर्मगुरुओं के मुखारविन्द से निकला हुआ धर्मोपदेश जितना प्रभावपूर्ण होता हैं और उस का जितना विलक्षण असर होता है, उतना प्रभावशालो सामान्य पुरुषों का नहीं होता। आचरणसम्पन्न व्यक्त के एक वचन का श्रोता पर जितना असर होता है, उतना आचरण होन व्यक्ति के निरन्तर किए गए उप देश का भी नहीं होता। तपोनिष्ठ त्यागशील गुरुजनों की आत्मा धम के रंग में निरन्तर रंगी हुई रहती है, उन के वचनों में अलौकिक सुधा का संमिश्रण होता है, जिस के पान से श्रोतृवर्ग की प्रसुप हृदयतंत्रो में एक नए ही जीवन का नाद प्रतिध्वनित होने लगता है। वे आत्मशक्ति से ओतप्रोत होते हैं। जिन के वचनो में आत्मिक शक्ति का मार्मिक प्रभाव नहीं होता, वे दूसरों को कभी प्रभावित नहीं कर सकते । उन का तो वका के मुख से निकल कर श्रोताओं के कानों में विलीन हो जाना, इतना मात्र ही प्रभाव होता है. । इसलिए चारित्रशील व्यक्तियों से प्राप्त हुआ सारगर्भित सदुपदेश ही श्रोताओं के हृदयों को पालोडित करने तथा उन के प्रसुप्त आत्मा को प्रबुद्ध करने में सफल हो सकता है।
___ हाथी का दान्त जब उस के पास अर्थात् मुख में होता है, तो वह उस से नगर के मज़बूत से मज़बूत किवाड़ को भी तोड़ने में समर्थ होता है । तात्पर्य यह है कि हाथी के मुख में लगा हुआ दान्त इतना शक्तिसम्पन्न होता है कि उस से दृढ़ किवाड़ भी टूट जाता है, पर वह दान्त जब हाथी के मुख से पृथक् हो कर, खराद पर चढ़ चूड़े का रूप धारण कर लेता है तब वह सौभाग्यवती महिलाओं के करकमलों की शोभा बढ़ाने के अतिरिक्त और कछ भी करने लायक नहीं रहता । उस में से वह उग्रशक्ति विलुप्त हो जाती है । यही दशा धर्मप्रवचन या धर्मोपदेशक की है । चारित्रनिष्ठ त्यागशील गुरुजनों का प्रवचन हाथी के मुख में लगे हुए दान्त के समान होता है और स्त्रियों के हाथ में पहने हुए दान्त के चूड़े के समान चारित्ररहित सामान्य पुरुषों का प्रवचन होता है । एक अपने अन्दर उग्रशक्ति रखता है, जबकि दूसरा केवल शोभा मात्र है। सुबाहुकमार पूर्वभव में किसी विशिष्ट व्यक्ति के प्रवचन से मार्मिक बोध को प्राप्त कर के तदनुसार आचरण
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