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श्री विपाकसूत्रीय द्वितीय श्रुतस्कन्ध
प्रथम अध्याय
तथा "-सुबाहू वि जहा जमाली तहा रहेणं णिग्गते जाव-' इस का तात्पर्य वृत्तिकार के शब्दों में "-येन भगवतीवर्णितप्रकारेण जमाली भगवभागिनेयो भगवद्वन्दनाय रथेन निर्गतः, अयमपि तेनैव प्रकारेण निर्गत इति, इह यावत्करणादिदं दृश्यं -समणस्त भगवो महावीरस्स छत्ताइच्छत्त पडागाइपडागं विज्जाचारणे जंभए य देवे ओवयमाणे उप्पयमाणे य पासति, पासित्ता रहातो पच्चारुहति पच्चारहित्ता समणं भगवं महावीरं वंदइ -" इत्यादि, इस प्रकार है। अर्थात्भगवान् के भागिनेय-भानजा जमालि का भगवान् को वन्दना करने के लिए चार घंटों वाले रथ पर सवार हो कर जाने का जैसा वर्णन भगवती सूत्र में किया गया है, ठीक उसी तरह सुबाहुकुमार भी चार घंटों वाले रथ पर सवार हो कर भगवद्वन्दनार्थ नगर से निकला । इस अर्थ के परिचायक-सुबाहू वि जहा जमाला तहा रहेणं णिग्गते-ये शब्द हैं और जाव-यावत् शब्द - श्रमण भगवान् महावीर के छत्र के ऊपर के छत्र को, पताका के ऊपर की पताकाओं को देख कर विद्याचारण और जभक देवों को ऊपर नीचे जाते आते देख कर रथ से नीचे उतरा और उतर कर भगवान् को भावपूर्वक वन्दना नमस्कार किया, इत्यादि भावों का परिचायक है । तात्पर्य यह है कि भगवद्वन्दनार्थ सुबाहुकुमार उसी भाँति गया जिस तरह जमालि गया था । जमालि के जाने का सविस्तर वर्णन भगवती सूत्र (शतक है, उद्दे० ३३, सू० ३८३) में किया गया है, परन्तु प्रकरणानुसारी जमालि का संक्षिप्त जीवनपरिचय निम्नोक है
ब्राह्मणकुण्डग्राम नामक नगर के पश्रिम में क्षत्रियकुण्डग्राम एक नगर था । वह नगर नगरोचित भी ऋद्धि, समृद्धि श्रादि गुणों से परिपूर्ण था। उस नगर में जमालि नामक क्षत्रियकुमार रहता था । वह धनी, दीप्त-तेजस्वी यावत् किसी से पराभव को प्राप्त न होने वाला था। एक दिन वह अपने उत्तम महल के ऊपर जिस में कि मृदंग बज रहे थे, बैठा हुआ था। सुन्दर युवतियों के द्वारा आयोजित बत्तीस प्रकार के नाटकों द्वारा उस का नर्तन कराया जा रहा था अर्थात् वह नचाया जा रहा था, उस की स्तुति की जा रही थी, उसे अत्यन्त प्रसन्न किया जा रहा था, अपने वैभव के अनुसार प्रावृट्', वर्षा, शरद, हेमन्त, वसन्त और ग्रीष्म इन छः ऋतुओं के सुख का अनुभव करता हुआ, समय व्यतीत करता हुआ, मनुष्यसम्बन्धी पांच प्रकार के इष्ट शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गन्ध रूप कामभोगों का अनुभव कर रहा था।
___इधर क्षत्रियकुण्डग्राम नगर के शृङ्गाटक, त्रिक, चतुष्क, चत्वर, चतुर्मुख-चार द्वारों वाला प्रासाद अथवा देवकुलादि, महापथ और अपथ इन सब स्थानों पर महान् जनशब्द-परस्पर अालापादि रूप, जनव्यूहजनसमूह, जनबोल-मनुष्यों की ध्वनि - अव्यक्त शब्द, जनकलकल-मनुष्यों के कलकल- व्यक्त शब्द, जनोर्मिलोगों की भीड़, जनोत्कलिका-मनुष्यों का छोटा समुदाय, जनसन्निपात (दूसरे स्थानों से आकर लोगों का एक स्थान पर एकत्रित होना) हो रहे थे, और बहुत से लोग एक दूसरे को सामान्यरूप से कह रहे थे कि भद्रपुरुषो ! श्रमण भगवान् महावीर स्वामी जो कि धर्म की आदि करने वाले हैं. यावत् सर्वज्ञ एवं सर्वदर्शी हैं, ब्राह्मणकुण्डग्राम नामक नगर के बाहिर बहुशालक नामक उद्यान में यथाकल्प-कल्प के अनुसार विराजमान हो रहे हैं।
हे भद्रपुरुषो ! जिन तथारूप - महाफल को उत्पन्न करने के स्वाभाव वाले, अरिहन्तो भगवन्तों के नाम और गोत्र के सनने से भी महाफल की प्राप्ति होती है, तब उन के अभिगमन -सन्मुख गमन, वन्दन-स्तुति नमस्कार, प्रतिप्रच्छन-शरीरादि की सुखसाता पूछना और पयुपासना-सेवा से तो कहना ही क्या ? अर्थात् अभिगमनादि का फल कल्पना की परिधि से बाहिर है । इसके अतिरिक्त जब एक भी आर्य और धार्मिक सुवचन
(१) प्रावृट आदि शब्दों का अर्थ पृष्ठ ५११ पर लिख दिया गया है । (२) शृंगाटक आदि शब्दों का अर्थ पृष्ठ ६९ पर लिखा जा चुका है।
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