________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir
६०४]
श्रीविपाकसूत्रीय द्वितीय श्रुतस्कन्ध
[ प्रथम अध्याय
बुला कर उन्हें चार घण्टों वाले अश्वयुक्त रथ को शीघ्रातिशोघ्र बिल्कुल तैयार कर के अपने पास उपस्थित कर देने की आज्ञा दी । कौटुम्बिक पुरुषों ने भी जमालि की इस आज्ञा के अनुसार रथ को शीघ्रातिशीघ्र तैयार कर उस के पास उपस्थित कर दिया।
- तदनन्तर जमालि कुमार स्नानादि से निवृत्त हो तथा वस्त्राभूषणादि से विभूषित हो कर, जहां रथ तैयार खड़ा था, वहां पहुंचा, वहां पहुंच कर वह चार घण्टों वाले अश्वयुक्त रथ पर चढ़ा तथा सिर के ऊपर धारण किये गये कोरण्ट पुष्पों की माला वाला, छत्रों सहित, महान् योधात्रों के समूह से परिवृत वह जमालि चत्रियकुण्डग्राम नामक नगर के मध्य भाग में से होता हुआ बाहिर निकला, निकल कर जहां ब्राह्मणकुण्डग्राम नामक नगर का बहुशालक नामक उद्यान था वहां आया, श्रा कर रथ से नीचे उतरा तथा पुष्प, ताम्बूल, आयुधशस्त्र तथा उपानत् को छोड़ कर एक वस्त्र से उत्तरासन कर और मुखादि की शुद्धि कर, दोनों हाथों को जोड़ मस्तक पर अंजलि रख कर जहां श्रमण भगवान् महावीर स्वामी विराजमान थे, वहां आया, अाकर उस ने श्री वीर प्रभु को तीन वार आदक्षिणप्रदक्षिणा की तथा कायिक', वाचिक एवं मानिसक पयुपासना द्वारा भगवान् की सेवा भक्ति करने लगा- यह है जमालि कुमार का वीरदर्शनयात्रावृत्तान्त, जिस की सूत्रकार ने सुत्राहुकुमार के वीरदर्शनयात्रावृत्तान्त से तुलना की है । जमालि और सुबाहुकुमार के दर्शनयात्रावृत्तान्त में अधिक साम्य होने के कारण ही सूत्रकार ने सुबाहुकुमार के दर्शनयात्रावृत्तान्त को बताने के लिए जमालि कुमार के दर्शनयात्रावृत्तान्त की ओर संकेत कर दिया है । अन्तर मात्र नामों का है । जैसे जमालि क्षत्रियकुण्डग्राम नगर का निवासी था जबकि सुबाहुकुमार हस्तिशीर्ष नगर का । इसी भाँति जमालि कुमार ब्राह्मणकुण्डग्राम नगर के बहुशालक उद्यान में भगवान महावीर के पधारने आदि का जनकोलाहल सुन कर वहां गया था जबकि श्री सुबाहुकुमार हस्तिशीर्ष नगर के पुष्पकरएडक उद्यान में प्रभु के पधारने आदि का जनकोलाहल सुन कर गया था । सारांश यह है कि नामगत भिन्नता के अतिरिक्त अर्थगत कोई भेद नहीं है।
___"सदहामि णं भंते ! निग्गंथं पावयणं जाव'-इस पाठ में दिये गये जाव-यावत् इस पद से -पत्तियामि णं भंते ! निग्गंथं पावयणं एवं रोमि णं भंते ! निग्गथं पावयणं, अन्भुमि णं भंते ! निग्गंथं पावयणं, एवमेयं भंते !, तहमेयं भंते !. अवितहमयं भंते !, असंदिद्धमेयं भंते !, पडिच्छियमेयं भंते !, इच्छितपडिच्छियमेयं भंते !, जंणं तुब्भे वदह त्ति कट्ट एवं यासी-इन पदों का ग्रहण करना चाहिये। सद्दहामि गां भंते !-इत्यादि पदों का शब्दार्थ निम्नोक्त है
हे भगवन् ! मैं निर्ग्रन्थ प्रवचन पर श्रद्धा रखता हूं। हे भगवन् ! निर्ग्रन्थ प्रवचन पर प्रीति - स्नेह रखता हूं । हे भगवन् ! निग्रन्थ प्रवचन मुझे अच्छा लगता है । हे भगवन् ! निर्ग्रन्थ प्रवचन को मैं स्वीकार करता हूं। हे भगवन् ! जैसा आप ने कहा है, वैसा ही है । हे भगवन् ! आप का प्रवचन जैसी वस्तु है उसी के अनुसार है। हे भगवन् ! आप का प्रवचन सत्य है । हे भगवन् ! अाप का प्रवचन सन्देहरहित है । हे भगवन् ! श्राप का प्रवचन इष्ट है । हे भगवन् ! आप का प्रवचन बारम्बार इष्ट है । हे भगवन् ! आर जो कहते हैं वह इष्ट तथा अत्यधिक इष्ट है - इस प्रकार कह कर सुबाहुकुमार फिर बोले ।
-राईसर० जाव प्पभिइयो - यहां पठित जाव-यावत् पद से - तजवरमाडंवियकोडुवियसेट्ठिसेणावइसत्यवाह-इन पदों का ग्रहण करना चाहिये । राजा प्रजापति को कहते हैं। सेना के नायक का नाम सेनापति है। अवशिष्ट ईश्वर आदि पदों का अर्थ पृष्ठ १६५ पर लिखा जा चुका है ।
(१) कायिक आदि त्रिविध पयुपासना का अर्थसम्बन्धी ऊहापोह पृष्ठ २९ की टिप्पणी में किया गया है।
For Private And Personal