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श्री विपाकसू त्रीय द्वितीय श्रुतस्वन्ध
[प्रमथ अध्याय
तथा बहुत से दण्डी-दण्ड धारण करने वाले, मुण्डी मुण्डन कराये हुए, शिस्त्रण्डी . चोटी रखे हुए, जटीजटाओं वाले, पिंछी- मयूरपंख लिये हुए, हासकर - उपहास (दु:खद हंसी) करने वा ने, डमरकर-लड़ाई झगड़ा करने वाले, चाटुकर-प्रिय वचन बोलने वाले, वादकर - वाद करने वाले, कन्दपकर – कौतूहल करने वाले. दवकर - परिहास ( सुखद हंसी) करने वाले, भाण्डचेष्टा करने वाले अर्थात् मसखरे, कीर्तिकर - कीति करने वाले. ये सब लोग कविता आदि पढ़ते हुर, गीतादि गाने हुए, हसते हुए नाचते हुए, बोलते हुए और भविष्यसम्बन्धी बातें करते हुए, अथवा राजा आदि का अनिष्ट करने वालों को बुरा भला कहते हुए, राजा आदि की रक्षा करते हुए, उन का अवलोकन देखमाल करते हुए, " - महाराज की जय हो, महाराज की जय हो " इस प्रकार शब्द बोलते हुए, यथाक्रम चम्पानरेरा कूणिक की सवारी के आगे २ चल रहे थे । इस के अतिरिक्त नाना प्रकार की वेशभूषा और शस्त्रादि से सुसज्जित नानाविध हाथी और घोड़े दर्शन -यात्रा की शोभा को चार चांद लगा रहे थे।
वक्षःस्थल पर बहुत से सुन्दर हारों को धारण करने वाले, कुण्डलों से उद्दीप्त-प्रकाशमान मुख वाले, सिर पर मुकुट धारण करने वाले, अत्यधिक राजतेज की लक्ष्मी से दीप्यमान अर्थात् चमकते हुए चम्पानरेश कुणक पूर्णभद्र नामक उद्यान की ओर प्रस्थित हुए, जिन के ऊपर छत्र किया हुआ था तथा दोनों ओर जिन पर चमर ढुलाए जारहे थे एवं चतुरङ्गिणी सेना जिन का मार्गप्रदर्शन कर रही थी। तथा सर्वप्रकार की ऋद्धि से युक्त, समस्त अाभरणादिरूप लक्ष्मी से युक्त, सवप्रकार की युति-सकल वस्त्राभूषणादि की प्रभा मे युक्त, सर्व प्रकार के बल - सैन्य से युक्त, सर्वप्रकार के समुदाय - नागरिकों के और राजपरिवार के समुदाय से युक्त, सर्व प्रकार के श्रादर - उचित कार्यों के सम्पादन से युक्त, सर्व प्रकार की विभूति - ऐश्वर्य से युक्त, सर्वप्रकार की विभषावेषादिजन्य शोभा से युक्त, सर्वप्रकार के संभ्रम - भक्तिजन्य उत्सुकता से युक्त, सवेपुष्पों, गन्धों सुगन्धित पदार्थों, मालाओं और अलंकारों - भूषणों से युक्त इसी प्रकार 'महान् ऋद्धि आदि से युक्त चम्पानरेश कुणिक शंख, पटह आदि अनेकविध वादित्रों-बाजों के साथ महान् समारोह के साथ चम्पानगरी के मध्य में से हो कर निकले । इन के सन्मख दासपुरुषों ने भृगार - झारी उठा रखी थी, इन्हें उपलक्ष्य कर के दासपुरुषों ने पंखा उठा रखा था, इन के ऊपर श्वेत छत्र किया हुआ था तथा इन के ऊपर छोटे २ चमर ढलाये जा रहे थे।
जब चम्पानरेश चम्पानगरी के मध्य में से हो कर निकल रहे थे तब बहुत से अर्थार्थी -धन की कामना रखने वाले. भोगार्थी-भोग ( मनोज्ञ गन्ध, रस और स्पश । को कामना करने वाले, किल्विषिक-दूसरों को नकल करने वाले. नकलिए. कारोटिक - भितुविशेष अथवा पान दान को उठाने वाले, लाभार्थी-धनादि के लाभ की इच्छा रखने वाले, कारवाहिक - महसूल से पीडित हुए, शंखिक -चन्दन से युक्त शंखों को हाथों में लिए हुए, चक्रिक - चक्राकार शस्त्र को धारण करने वाले, अथवा कुम्भकार -कुम्हार और तैलिक --तेली आदि, नङ्गलिक - किसान, मुखमाङ्गलिक-प्रिय वचन बोलने वाले, वर्धमान -स्कन्धों पर उठाए पुरुष, पूष्यमानवस्तुतिपाठक, छात्र समुदाय ये सब २इष्ट कान्त, प्रिय, मनांज्ञ, मनोऽम, मनोअभिराम और हृदयगमनीय वचनों द्वारा, "--महाराज की जय हो, विजय हो -" इस प्रकार के सैंकड़ो मगल वचनों के द्वारा निरन्तर अभिनन्दनसराहना तथा स्तुति करते हुए इस प्रकार बोलते हैं :
(१) प्रस्तुत में सब प्रकार का ऋद्ध से युक्त आदि विरोषण कार दिये ही जा चुके हैं। फिर महान् ऋद्धि से युक्त श्रादि विशेषणों की क्या आवश्यकता है ?, यह प्रश्न उपस्थित होता है । उस का उत्तर प्रष्ठ ५०८ तथा ५०९ की टिप्पण में दिया जा चुका है।
(२) इष्ट, कान्त, प्रिय आदि पदों की व्याख्या पृष्ठ ४८९ पर की जा चुकी है।
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