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५९४] श्री विपाकसूत्रीय द्वितीय श्रुतस्कन्ध
[प्रथम अध्याय मर्यादा करना ।
९-शयन-शय्या, पाट, पलंग आदि पदार्थों की मर्यादा करना।
१०-विलेपन - शरीर पर लेपन किये जाने वाले केसर, चन्दन, तेल, साबुन , अंजन, मञ्जन आदि पदार्थों की मर्यादा करना।
११-ब्रह्मचर्य-स्वदारसन्तोष की मर्यादा को यथाशक्ति संकुचित करना । पुरुष का पत्नीसंसर्ग के विषय में और स्त्री का पतिसंसग के विषय में त्याग अथवा मर्यादा करना।
१२-दिशा-दिक्परिमाणवत स्वीकार करते समय आवागमन के लिए मर्यादा में जो क्षेत्र जीवन भर के लिये रखा है, उस क्षेत्र का भी संकोच करना तथा मर्यादा करना ।
१३-स्नान-देश या सर्व स्नान के लिये मर्यादा करना । शरीर के कुछ भाग को धोना देशस्नान है तथा शरीर के सब भागों को धोना सर्वस्नान कहलाता है।
१४-भत्त-भोजन, पानी के सम्बन्ध में मर्यादा करना कि मैं आज इतने प्रमाण से अधिक न खाऊंगा और न पीऊगा।
कई लोग इन चौदह नियमों के साथ असि, मसि और कृषि इन तीनों को और मिलाते हैं । ये तीनों कार्य आजीविका के लिये किये जाते हैं । आजीविका के लिये जो कार्य किये जाते हैं उन में से पन्द्रह कर्मादानों का तो श्रावक को त्याग होता ही है, शेष जो कार्य रहते हैं उन के विषय में भी यथाशक्ति मर्यादा करनी चाहिये । असि आदि पदों का अर्थसम्बन्धी ऊहापोह निम्नोक्त है
१-असि-शस्त्र-औज़ार आदि के द्वारा परिश्रम कर के अपनी आजीविका चलाना । २-मसि-कलम दवात, काग़ज़ के द्वारा लेख या गणित कला का उपयोग कर के जीवन चलाना। ३-कृषि - खेती के द्वारा या उन पदार्था के क्रयविक्रय से आजीविका चलाना। .
देशावकाशिक व्रत की एक व्याख्या ऊपर दी जा चुकी है, परन्तु इस के अन्य व्याख्यान के दो और भी प्रकार मिलते हैं, जो कि निम्नोक्त हैं -
(१) जिस प्रकार १४ नियमों के ग्रहण करने से स्वीकृत व्रतों से सम्बन्धित जो मर्यादा रखी गई है, उस में द्रव्य और क्षेत्र से संकोच किया जाता है, इसी प्रकार ५ अणुव्रतों में काल की मर्यादा नियत कर के एक दिन रात के लिये आसवसेवन का त्याग किया जाए, वह भी देशावकाशिक व्रत कहलाता है, जिस को आज का जैन संसार दया या छःकाया के नाम से अभिहित करता है । दया करने के लिये प्रास्रवसेवन का एक दिन रात के लिये त्याग कर के विरतिपूर्वक धर्मस्थान में रहा जाता है । ऐसी विरति त्यागपूर्ण जीवन बिताने का अभ्यासरूप है। दया उपवास कर के भी की जा सकती है। यदि उपवास करने की शक्ति न हो तो
आयंबिल आदि करके भी की जा सकती है । यदि कारणवश ऐसा कोई भी तप न किया जा सके तो एक या एक से अधिक भोजन कर के भी की जा सकती है । सारांश यह है कि दया में जितना तप त्याग किया जा सके उतना ही अच्छा है।
दया में किये जाने वाले प्रत्याख्यान जितने करण और योग से करना चाहें कर सकते हैं । कोई दो करण और तीन योग से ५ पासवसेवन का त्याग करते हैं । उन की प्रतिज्ञा का रूप होगा कि मैं मन, वचन और काया से ५ श्रास्रवों का सेवन न करूंगा, न दूसरे से कराऊंगा । यह प्रतिज्ञा करने वाला व्यक्ति सावद्य कार्य को स्वयं न कर सकेगा न दूसरों से करा सकेगा, परन्तु इस तरह की प्रतिज्ञा करने वाले व्यक्ति के लिए जो वस्तु बनी है, उस का उपयोग करने से उस की वह प्रतिज्ञा नहीं टूटने पाती ।
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