Book Title: Vipak Sutram
Author(s): Gyanmuni, Hemchandra Maharaj
Publisher: Jain Shastramala Karyalay

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Page 685
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रथम अध्याय हिन्दी भाषा टीका सहित । [५९५ दया को एक करण तीन योग से भी धारण किया जाता है। एक करण तीन योग से ग्रहण करने वाला जो व्यक्ति अास्रव का त्याग करता है वह स्वयं अासव नहीं करेगा परन्तु दूसरों से कराता है, तथापि उस का त्याग भंग नहीं होता क्योंकि उस ने दूसरे के द्वारा प्रारम्भ कराने का त्याग नहीं किया। इसी तरह इस व्रत को स्वीकार करने के लिये जो प्रत्याख्यान किया जाता है वह एक करण और एक योग से भी हो सकता है। ऐसा प्रत्याख्यान करने वाला व्यक्ति केवल शरीर से ही प्रारम्भ के कार्य नहीं कर सकता । मन वचन से करने, कराने और अनुमोदने का उस ने त्याग नहीं किया, परन्तु यह त्याग बहुत अल्प हैं। इस में श्रास्रवों का बहत कम अंश त्यागा जाता है। (२) थोड़े समय के लिये प्रासवों के सेवन का त्याग भी -देशावकाशिक व्रत-कहलाता है, आजकल इसे सम्वर कहते हैं । सम्बर करने वाला व्यक्ति जितने थोड़े समय के लिए उसे करना चाहे कर सकता है। जैसे सामायिक के लिये कम से कम ४८ मिन्ट निश्चित होते हैं, वैसी बात सम्बर के लिये नहीं है । अर्थात् इच्छानुसार समय के लिये प्रास्तव से निवृत्त होने के लिए सम्पर किया जा सकता है। आज कल देशाव काशिक व्रत चौविहार उपवास न कर के कई लोग प्रासुक पानी का उपयोग करते हैं और इस प्रकार से किये गये देशावकाशिक व्रत को पौषध कहते हैं, परन्तु वास्तव में इस तरह का पौषध देशावकाशिकव्रत ही है । ग्यारहवें (११) व्रत का पौषध तो तब होता है जब चारों प्रकार के आहारों का पूर्णतया त्याग किया जाए और चारों प्रकार पौषधों को पूरी तरह अपनाया जाये, जो इस तरह नहीं किया जाता प्रत्युत सामान्यरूप से अपनाया जाता है उस की गणना दशमें देशावकाशिक व्रत में ही होती हैं। इस के अनुसार तप कर के पानी का उपयोग करने अथवा शरीर से लगाने, मलने रूप तेल का उपयोग करने पर दशवां व्रत ही हो सकता है, ग्यारहवां नहीं। श्रावक अहिंसा, सत्य आदि अणुव्रतों को प्रशस्त बनाने एवं उन में गुण उत्पन्न करने के लिये जो दिपरिमाणवत तथा उपभोगपरिभोगपरिमाणवत स्वीकार करता है, उस में अपनी आवश्यकता और परिस्थिति के अनुसार जो मर्यादा करता है, वे जीवन भर के लिये करता है । तात्पर्य यह है कि दिकपरिमाणवत और उपभोगपरिभोगपरिमाणवत जीवन भर के लिये ग्रहण किये जाते हैं और इसलिये इन व्रतों को ग्रहण करते समय जो छुट रखी जाती है वह भी जीवन भर के लिये होती है, परन्तु श्रावक ने व्रत लेते समय जो आवागमन के लिये क्षेत्र रखा है तथा भोगोपभोग के लिये जो पदार्थ रखे हैं उन सब का उपयोग वह प्रतिदिन नहीं कर पाता, इसलिए परिस्थिति के अनुसार कुछ समय के लिए उस मर्यादा को घटाया भी जा सकता है अर्थात् गमनागमन के मर्यादित क्षेत्र को और मर्यादित उपभोग्य परिभोग्य पदार्थों को भी कम किया जा सकता है । उन का कम कर देना ही देशावकाशिक व्रत का उद्देश्य रहा हुआ है। इस शिक्षाव्रत के आराधन से प्रारम्भ कम होगा और अहिंसा भगवती की अधिकाधिक सुखद साधना सम्पन्न होगी। अतः प्रत्येक श्रावक को देशावकाशिक व्रत के पालन से अपना भविष्य उज्ज्वल, समुज्ज्वल एवं अत्युज्ज्वल बनाने का स्तुत्य प्रयास करना चाहिये । इस के अतिरिक्त देशावकाशिक व्रत के संरक्षण के लिये निम्नोक्त ५ कार्यों का त्याग आवश्यक है १-आनयनप्रयोग-दिशाओं का संकोच करने के पश्चात् आवश्यकता उपस्थित होने पर मर्यादित भूमि से बाहिर रहे हुए पदार्थ किसी को भेज कर मंगाना । तात्पर्य यह है कि जहां तक क्षेत्र की मर्यादा की है उस से बाहिर कोई पदार्थ नहीं मंगाना चाहिये और तृष्णा का संवरण करना चाहिए। दूसरे के द्वारा मंगवाने से प्रथम तो मर्यादा का भंग होता है और दूसरे श्रावक जितना स्वयं विवेक कर सकता है उतना दूसरा नहीं कर सकेगा। २-प्रष्यप्रयोग-दिशात्रों के संकोच करने के कारण व्रती का स्वयं तो नहीं जाना परन्तु अपने को मर्यादाभंग के पाप से बचाने के विचारों से कोई वस्तु वहां पहुंचाने के लिए नौकर को भेजना । पहले भेद में आनयन प्रधान है जब कि दूसरे में प्रेषण । For Private And Personal

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