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प्रथम अध्याय ]
हिन्दी भाषा टीका सहित ।
समझ ले और निरर्थक प्रयोग से अपने को बचा ले । गुणवत अणुव्रतों के पोषक होते हैं, यह पहले बताया जा चुका है । पहले दिपरिमाणवत ने अमर्यादित क्षेत्र को मर्यादित किया। उपभोगपरिभोगपरिमाणवत से अमर्यादित पदार्थों को मर्यादित किया गया है और अनर्थदण्डविरमणव्रत ने पहले की छटों को क्रया से अर्थात् कार्य के अविवेक से पुनः मर्यादित किया है । तात्पर्य यह है कि अनर्थदण्डविरमण व्रत के ग्रहण से यह मर्यादा की जाती है कि मैं निरर्थक पाप से बचा रहंगा और "- गृहकार्य मेरे लिये आवश्यक हैं या नहीं ?, इस काम को करने के बिना भी मेरा जीवन चल सकता है या नहीं ?, यदि नहीं चलता तो विवश मुझे यह काम करना ही पड़ेगा, प्रत्युत इस काम के किए बिना भी यदि मेरा जीवननिर्वाह हो सकता है तो व्यर्थ में उसे क्यों करू, क्यों व्यर्थ में अपनी आत्मा को पाप से भारी बनाऊ?-" इस प्रकार का विवेक सम्प्राप्त हो जाता है और अणुव्रतों के अागारों की निष्प्रयोजन प्रवृत्तियों को रोका जा सकता है। इस के अतिरिक्त 'अनर्थदण्डविरमणव्रत के संरक्षण के लिये निम्नलिखित ५ कार्यों का त्याग आवश्यक है
१ - कन्दर्प-कामवासना के पोषक, उत्तेजक तथा मोहोत्पादक शब्दों का हास्य या व्यंग्य में दूसरे के लिये प्रयोग करना।
२-कौकुच्य-आंख, नाक, मुह, भृकुटि श्रादि अंगों को विकृत बना कर भांड या विदूषक की भान्ति लोगों को हंसाना । तात्पर्य यह है कि भाण्डचेष्टाओं का करना । प्रतिष्ठित एवं सभ्य लोगों के लिये अनुचित होने से. इन का निषेध किया गया है।
३-मौखर्य-निष्कारण ही अधिक बोलना, निष्प्रयोजन और अनर्गल बातें करना, थोड़ी बात से काम चल सकने पर भी व्यर्थ में अधिक बोलते रहना।
४-संयुक्ताधिकरण-कूटने, पीसने और गृहकार्य के अन्य साधन जैसे-ऊखल, मूसल आदि वस्तुओं का अधिक और निष्प्रयोजन संग्रह रखना । जिस से आत्मा दुर्गति का भाजन बने उसे अधिकरण कहते है अर्थात् दुगतिमूलक पदार्थों का परस्पर में संयोग बनाए रखना, जैसे-गोली भर कर बन्दूक का रखना, वह अचानक चल जाए या कोई उसे अनभिज्ञता के कारण चला दे तो वह जीवन के नाश का कारण हो सकती है, इसीलिए संयुक्ताधिकरण को दोषरूप माना गया है ।
___५-उपभोगपरिभोगातिरिक्त-उबटन, प्रांवला, तेल, पुष्प वस्त्र, आभूषण तथा अशन, पान, खादिम और स्वादिम आदि उपभोग्य तथा परिभोग्य पदार्थों को अपने एवं आत्मीय जनो के उपभोग से अधिक रखना । उपभोगपरिभोगपरिमाणवत स्वीकार करते समय जो पदार्थ मर्यादा में रखे गये हैं, उन में अत्यधिक
आसक्त रहना. उन में आनन्द मान कर उन का पुनः २ प्रयोग करना अर्थात् उन का प्रयोग जीवन निर्वाह के लिये नहीं किन्तु स्वाद के लिये करना, जैसे – पेट भरा होने पर भी स्वाद के लिये खाना ।
श्रावक जो व्रत ग्रहण करता है वह देश से ग्रहण करता है, सर्व से नहीं । उस में त्याग की पूर्णता नहीं होती। इस लिये उस की त्यागबुद्धि को सिंचन का मिलना आवश्यक होता है। बिना सिंचन के मिले उस का पुष्ट होना कठिन है। इसीलिये सूत्रकार ने अणुव्रतों के सिचन के लिये तीन गुणवतों का विधान किया है । गुणव्रतों के अाराधन से श्रावक की आवश्यकताए' सीमित हो जाती हैं और श्रावक पुद्गलानंदी न रह कर मात्र जीवननिर्वाह के लिये पदार्थों का उपभोग करता है तथा जीवन में अनावश्यक प्रवृत्तियों के त्याग के साथ २ आवश्यक प्रवृत्तियों में भी वह निवृत्तिमार्ग के लिये सचेष्ट रहता है, परन्तु उस की उस निवृत्तिप्रधान चेष्टा को सदैव बनाये रखने के लिये और उस में प्रगति लाने के लिये किसी शिक्षक एवं प्रेरक सामग्री की
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