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५८४ ]
श्री विपाकसूत्रीय द्वितीय श्रुतस्कन्ध
[प्रथम अध्याय
विशेष ध्यान रखना चाहिये
१-ऊर्ध्व दिशा में गमनागमन करने के लिए जो क्षेत्र मर्यादा में रखा है, उस का उल्लंघन न करना । २-नीची दिशश के लिये किये गये क्षेत्रपरिमाण का उल्लघन न करना।
३-तिय दिशा अर्थात् पूर्व और पश्चिम दिशा आदि के लिये गमनागमन का जो परिमाण किया गया है, उस का उल्लंघन न करना ।
४- एक दिशा के लिए की गई सीमा को कम कर के उस कम की गई सीमा को दूसरी दिशा को सीमा में जोड़ कर दूसरी दिशा नहीं बढ़ा लेना । इसे उदाहरण से समझिए -
किसी व्यक्ति ने व्रत लेते समय पूर्व दिशा में गमनागमन करने की मर्यादा ५० कोस की रखी है, परन्तु कुछ दिनों के पश्चात् उस ने सोचा कि मुझे पूर्व दिशा में जाने का इतना काम नहीं पड़ता और पश्चिम दिशा में मर्यादित क्षेत्र से दूर जाने का काम निकल रहा है, इस लिए काम चलाने के लिये पूर्व दिशा में रखे हुए ५० कोस में से कुछ कम कर के पश्चिम दिशा के मर्यादित क्षेत्र को बढ़ा लू । इस तरह विचार कर एक दिशा के सीमित क्षेत्र को कम कर के दूसरी दिशा के सीमित क्षेत्र में उसे मिला कर उस को नहीं बढ़ाना चाहिये।
५-क्षेत्र की मर्यादा को भूल कर मर्यादित क्षेत्र से आगे नहीं बढ़ जाना, अथवा में शायद अपनी मर्यादित क्षेत्र की सीमा तक आचुका हूंगा कि नहीं? | ऐसा विचार करने के पश्चात् भी निर्णय किये बिना आगे नहीं बढ़ना चाहिये।
ऊपर कहा जा चुका है कि गुणवत अणुक्तों को पुष्ट करने वाले, उन में विशेषता लाने वाले होते हैं। दिकपरिमाणवत अणुव्रतों में विशेषता किस तरह लाता है ? इस के सम्बन्ध में किया गया विचार निम्नोक्त है -
१-श्रावक का प्रथम अणुव्रत अहिंसाणवत है। उस में स्थूल हिसा का त्याग होता है । सूक्ष्म हिसा का श्रावक को त्याग नहीं होता और उस में किसी क्षेत्र की मर्यादा भी नहीं होती। सूक्ष्म हिंसा के लिये सभी क्षेत्र खुले हैं । दिकपरिमाणवत उसे सीमित करता है, उसे असीम नहीं रहने देता । दिकपरिमाणवत से जाने और श्राने के लिए सीमित क्षेत्र के बाहिर की सूक्ष्म हिंसा भी छूट जाती है । इस तरह दिक्परिमाणवत अहिंसाणुव्रत में विशेषता लाता है।
२-श्रावक का दूसरा अणुव्रत सत्याणवत है । उस में स्थूल झूठ का त्याग होता है परन्तु सूक्ष्म झूठ का त्याग नहीं होता । वह सभी क्षेत्रों के लिए खुला रहता है । दिपरिमाणवत सत्याणुव्रत के उस सूक्ष्म झूठ की छड़ को सीमित करता है, जितना क्षेत्र छोड़ दिया गया है उतने क्षेत्र में सूक्ष्म झूठ के पाप से बचाव हो जाता है।
३-श्रावक का तीसरा अणुव्रत अत्रौर्याणुव्रत है। इस में स्थूल चोरी का त्याग तो होता है परन्तु सूक्ष्म चोरी का त्याग नहीं होता। इस के अतिरिक्त वह सभी क्षेत्रों के लिये खुली रहती है, दिपरिमाणवत उसे सीमित करता है, उसे अमर्यादित नहीं रहने देता।
४-श्रावक का चतुर्थ अणुवत ब्रह्मचर्याणवत है । इस में परस्त्री आदि का सवथा तथा सर्वत्र त्याग होने पर भी स्वस्त्री की जो मर्यादा है वह सभी क्षेत्रों के लिये खुली होती है, उस पर किसी प्रकार का क्षेत्रकृत नियंत्रण नहीं होता परन्तु दिक परिमाणवत उसे भी सीमित करता है । दिकपरिमाणव्रत धारण करने वाला व्यक्ति मर्यादित क्षेत्र से बाहिर स्वस्त्री के साथ भी दाम्पत्य व्यवहार नहीं कर सकेगा । इस प्रकार दिक्परिमाणवत ब्रह्मचर्याणुव्रत के पोषण का कारण बनता है ।
५-श्रावक का पांचवां परिग्रहाणुव्रत है। इस में भी दिकपरिमाणवत विशेषता उत्पन्न कर देता है क्योंकि दिपरिमाणवत ग्रहण करने वाला व्यक्ति मर्यादित परिग्रह का संरक्षण, अथवा उस की पूर्ति उसी
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