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श्री विपाकसूत्रीय द्वितीय श्रु तुम्कन्ध
[प्रथम अध्याय
२-विवाहिता पत्नी के अतिरिक्त शेष वेश्या, विधवा, कन्या, कुलवधू आदि. स्त्रियों के साथ, अथवा जिस कन्या के साथ सगाई हो चुकी है, उस कन्या के साथ संभोग करना।
३-कामसेवन के जो प्राकृतिक अंग हैं उन के अतिरिक्त अन्य अंगों से कामसेवन करना । हस्तमथुन आदि सभी कुकुम इस के अन्तर्गत हो जाते हैं।
४- अपनी सन्तान से भिन्न व्यक्तियों का कन्यादान के फल की कामना से, अथवा स्नेह आदि के वश हो कर विवाह कराना । अथवा दूसरों के विवाहलग्न कराने में अमर्यादित भाग लेना।
५-पांचो इन्द्रियों के विषय रूप, रस, गन्ध और स्पश में आसक्ति रखना, विषयवासनाओं में प्रगति लाने के लिये वीर्यवर्धक औषधियों का सेवन करना, कामभोगों में अत्यधिक आसक्त रहना ।
५-अपरिग्रहाणुव्रत-१-क्षेत्र -खेत, २-वास्तु-घर, गोदाम आदि, ३ - हिरण्य-चांदी की बनी वस्तुएं, ४-सुवर्ण-सुवर्ण से निर्मित वस्तुएं, ५ - द्विपद -दास, दासी आदि, ६- चतुष्पद-गाय, भैंस
आदि, ७-धन-रुपया तथा जवाहरात इत्यादि, ८-धान्य -२४ प्रकार का धान्य, तथा ९-कुप्य ताम्बा, पीतल, कांसी, लोहा श्रादि धातु तथा इन धातुओं से निर्मित वस्तुयें-इन नव प्रकार के परिग्रह की एक करण' तीन योग से मर्यादा अर्थात् मैं इतने मनुष्य, गज, अश्व आदि रखूगा, इन से अधिक नहीं, इसो भान्ति सभी पदार्थों की यथाशक्ति मर्यादा करना अर्थात् तृष्णा को कम करना, इच्छापरिमाणरूप पञ्चम अपरिग्रहाणुव्रत कहा जाता है।
___ मूर्छा अर्थात् अासक्ति का नाम परिग्रह है। दूसरे शब्दों में किसी भी वस्तु में चाहे वह छोटी, बड़ी, जड़, चेतन या किसी भी प्रकार की हो, अपनी हो, पराई हो उस में आसक्ति रखना, उस में बन्ध जाना, उस के पीछे पड़ कर अपने विवेक को नष्ट कर लेना ही परिग्रह है । धन आदि वस्तुए मुर्छा का कारण होने से भी परिग्रह के नाम से अभिहित की जाती है, परन्तु वास्तव में उन पर होने वाली श्रासक्ति का नाम ही परिग्रह है। परिग्रह भी एक बड़ा भारी पाप है। परिग्रह मानव की मनोवृत्ति को उत्तरोत्तर दूषित ही करता चला जाता है और किसी भी प्रकार का स्वपरहिताहित एवं लाभालाभ का विवेक नहीं रहने देता। सामाजिक एवं राष्ट्रीय विषमता, संघर्ष, कलह, एवं अशान्ति का प्रधान कारण परिग्रह ही है। अतः स्व और पर की शान्ति के लिये अमर्यादित स्वार्थवृत्ति एवं संग्रहबुद्धि पर नियन्त्रण का रखना अत्यावश्यक है । इस के अतिरिक्त अपरिग्रहाणुव्रत के संरक्षण एवं संवर्धन के लिये निम्नोक्त ५ बातों का विशेष ध्यान रखना चाहिये -
१-धान्योत्पत्ति की जमीन को क्षेत्र कहते हैं, वह सेतु -जो कूप के पानी से सींचा जाता है, तथा केतु- वर्षा के पानी से जिस में धान्य पैदा होता है, इन भेदों से दो प्रकार का होता है । भूमिगृहभोयरा; भूमिगृह पर बना हुश्रा घर या प्रासाद, एवं सामान्य भूमि पर बना हुआ घर आदि वास्तु कहलाता है। उक्त क्षेत्र तथा वास्तु को जो मर्यादा कर रखी है, उस का उल्लंघन करना । तात्पर्य यह है कि यदि भूमि दस बीघे की, अथवा दो घर रखने की मर्यादा की है तो उस से अधिक रखना । अथवा मर्यादित क्षेत्र या घर आदि से अधिक क्षेत्र या घर आदि मिलने पर बाड या टोवाल वगैरा हटाकर मर्याटिन क्षेत्र या घर आदि से मिला लेना।
२-घटित (घड़ा हुआ) और अघटित (बिना घड़ा हुआ) सोना चांदी के परिमाण का एवं
१-एक करण, एक योग से भी मर्यादा की जा सकती है । मर्याटा में मात्र शक्ति अपेक्षित है। केवल तृष्णा के प्रवाह को रोकना इस का उद्देश्य है ।
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