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प्रथम अध्याय
हिन्दी भाषा टीका सहित ।
[५८१
अावश्यकता प्रतीत हो तो वह सहयोगपूर्वक मित्रता के भाव से दिया हुआ ही ग्रहण करना चाहिये । किसी भी प्रकार का बलात्कार अथवा अनुचित शक्ति का प्रयोग कर के कुछ लेना, लेना नहीं है प्रत्युत वह छीनना ही है, जो कि लोकनिंद्य होने के साथ २ अात्मण्तन का भी कारण
के माशयामात का भी कारण बनता है। अतः सखाभिलाषी मनुष्यों को चौर्य कर्म की जघन्य प्रवृत्तियों मे सदा बचते रहना चाहिये । इस के अतिरिक्त अस्तेयाणुव्रत के सरक्षण के लिये निम्नलिखित पांच कर्मों का त्याग अवश्य कर देना चाहिये -
१-चोर द्वारा चोरी कर के लाई हुई सोना, चांदी अादि वस्तु को लोभवश अल्प मूल्य में खरीदना अर्थात् चोरी का माल लेना ।
२-चोरों को चोरी के लिये प्ररणा करना या उन को उत्साह देना या उनकी सहायता करनी अर्थात् तुम्हारे पास खाना नहीं है तो मैं देता हूँ, तुम्हारी अपहृत वस्तु यदि कोई बेचता नहीं तो मैं बेच देता हूं, इत्यादि वचनों द्वारा चोरों का सहायक बनना ।।
३-विरोधी राज्य में उस के शासक की आज्ञा बिना प्रवेश करना या अपने राजा की आज्ञा में बिना शत्रुराजाओं के राज्य में आना तथा जाना या राष्ट्रविरोधी कर्म करना । अथवा कर-महसूल आदि की चोरी करना ।
४-झूठे माप और तोल रखना, तात्पर्य यह है कि तोलने के वाट और नापने के गज़ श्रादि हीनाधिक रखना, थोड़ी वस्तु देना और अधिक लेना।
५-बहु मूल्य वाली बढ़िया वस्तु में उसी के समान वर्ण वाली अल्प मूल्य वाली वस्तु मिला कर असली के रूप में बेचना । अथवा असली वस्तु दिखा कर नकली देना । अथवा नकली को ही असली के नाम मे बेचना ।
४-ब्रह्मचर्याणघन - इसे स्वदारसन्तोषव्रत भी कहा जा सकता है । विधिपूर्वक विवाहिता स्त्री में सन्तोष करना तथा अपनी विवाहिता पत्नी के अतिरिक्त शेष औदारिकशरीरधारी अर्थात् मनुष्य और तिर्यञ्च के शरीर को धारण करने वाली स्त्रियों के साथ एक करण. एक योग से अर्थात् काय से परस्त्री का सेवन नहीं करूंगा. इस प्रकार तथा वैक्रियशरीरधारी-देवशरीरधारी स्त्रियों के साथ दो करण तीन योग से मैथुनसेवनत्यागरूप चतुर्थ ब्रह्मचर्याणवत कहलाता है।
विषयवासनाएं जीवन का पतन करने वाली हैं और उन का त्याग जीवन को उन्नत एवं समुन्नत बनाने वाला है, अत: विवेकी पुरुष को इन्द्रियजन्य विषयों से सदा विरत रहना चाहिये । इन्द्रियों और विषयों के संयोग से उत्पन्न भोग दु:ख के ही कारण बनते हैं। इस तथ्य का गीता में बड़ी सुन्दरता से वर्णन किया गया हैं । वहां लिखा है -
ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते ।
श्राद्यन्तवतन्तः कैन्तेय !, न तेषु रमते बुधः ॥ (अध्ययन ५/२२) 'अर्थात् जो ये इन्द्रिय तथा विषयों के संयोग से उत्पन्न होने वाले सव भोग हैं, वे यद्यपि विषयी पुरुषों को भ्रम से सुखरूप प्रतीत होते हैं, परन्तु ये निःसन्देह दुःख के ही कारण है और आदि अन्त वाले अर्थात् अनित्य हैं । इसलिये हे कौन्तेय ! अर्थात् हे अजुन ! बुद्धिमान विवेकी पुरुष इन में रमण नहीं करता। इस के अतिरिक्त ब्रह्मचर्याणुव्रत के संरक्षण के लिये निनोक ५ कायां का त्याग अवश्य कर देना चाहिये
१-कुछ काल के लिये अधीन की गई स्त्री के साथ, अथवा जिस स्त्री के साथ वागदान सगाई हो गया है उस के साथ, अथवा अल्प वय वाली अर्थात् जिस की श्रायु अभी भोगयोग्य नहीं हुई है ऐसी अपनी विवाहिता स्त्री के साथ संभोग आदि करना।
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