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प्रथम अभ्याय]
हिन्दी भाषा. टीका सहित ।
[५८३
हीरा, पन्ना, जवाहरात आदि परिमाण का उल्लंघन करना । राजा की प्रसन्नता से प्राप्त धनादि नियत मर्यादा से अधिक होने के कारण व्रतभंग के भय से पुनः वापिस लेने के लिये किसी दूसरे के पास रख देना।
३-घी, दूध, दही, गुड़, शक्कर आदि धन तथा चावल, गेहूं, मूग, उड़द, जौ, मक्की आदि धान्य कहे जाते हैं। इन दोनों के विषय में जो मर्यादा की है, उस का उल्लंघन करना । अथवा मर्यादा से अधिक धन धान्य की प्राप्ति होने पर उसे स्वीकार कर लेना, परन्तु व्रतभंग के भय से उन्हें धान्यादि के बिक जाने पर ले लूगा, यह सोच कर दूसरे के घर पर रहने देना।
४-द्विपद सन्तान, स्त्री, दास दासी, तोता मैना आदि तथा चतुष्पद - गाय, भैंस, घोड़ा, ऊंट, हाथी आदि के परिमाण का उल्लघन करना।
५- सोने, चांदी के अतिरिक्त कांसी, पीतल, ताम्बा, लोहा आदि धातु तथा उन से निमित बर्तन आदि, आसन, शयन, वस्त्र, कम्बल, तथा बर्तन आदि घर के सामान की जो मर्यादा की है, उस का भंग करना । अथवा नियमित कांसी आदि की प्राप्ति होने पर दो दो को मिला कर वस्तुओं को बड़ी करा देना और नियमित संख्या कायम रखना। अथवा नियत काल की मर्यादा वाले का व्रतभंग के भय से अधिक कांसी आदि पदार्थों को न खरीद कर पुनः खरीदने के लिये उन के स्वामी को "-तुम किसी को नहीं देना, अमुक समय के अनन्तर मैं लेलूगा-" ऐसा कहना ।
पूर्वोक्त ५ अणुव्रतों के पालन में गुणकारी, उपकारक तथा गुणों को पुष्ट करने वाले व्रत गुणवत कहलाते हैं, और वे तीन हैं। उन की नामनिर्देशपूर्वक व्याख्या निम्नोक्त है
१-दिक्परिमाणवत-दिक् दिशा को कहते हैं । दिशा-ऊर्ध्व, अध: और तिर्यक् इन भेदों से तीन प्रकार की होती है । अपने से ऊपर की ओर को उर्व दिशा, नीचे की ओर को अधोदिशा, तथा इन दोनों की बीच की ओर को तिर्यकदिशा कहते हैं । तिर्यदिशा के-पूर्व पश्चिम, उत्तर और 'दक्षिण ऐसे चार भेद होते हैं । जिस ओर सूर्य निकलता है वह पूर्व दिशा, जिस ओर छिपता है वह पश्चिमदिशा, सूर्य की ओर मुंह करके खड़ा होने पर बाए हाथ की ओर उत्तर दिशा और दाहिने हाथ की और दक्षिण दिशा कहलाती है । चार दिशाओं के अतिरिक्त चार विदिशाएं भी होती हैं, जो ईशान आग्नेय, नैऋत्य और वायव्य इन नामा से अभिहित की जाती हैं । उत्तर और पूर्व दिशा के बीच के 'कोण को ईशान, पूर्व तथा दक्षिण दिशा के बीच के कोण को अाग्नेय, दक्षिण और पश्चिम दिशा के बीच के कोण को नैऋत्य तया पश्चिम और उत्तर दिशा के बीच के कोण को वायव्य कहा जाता है । इन सब ऊर्व, अध: आदि भेदोपभेद वाली दिशाओं में गमनागमन करने अर्थात् जाने और आने के सम्बन्ध में जो मर्यादा की जाती है, तात्पर्य यह है कि जो यह निश्चय किया जाता है कि मैं अमुक स्थान से अमुक दिशा में अथवा सब दिशाओं में इतनी दर से अधिक नहीं जाऊंगा. उस मर्यादा या निश्चय को दिकपरिणामव्रत कहा जाता है।
__आगे बढ़ना ही जीवन का प्रधान लक्ष्य होता है, परन्तु आगे बढ़ने के लिये चित्त की शान्ति सर्वप्रथम अपेक्षित होती है। चित्त की शान्ति का सर्वोत्तम उपाय है. - इच्छाओं का संकोच । जब तक इच्छायें सीमित नहीं होगी तब तक चित्त की शान्ति भी नहीं हो सकती । इस लिये भगवान् ने व्रतधारी श्रावक के लिये दिक्परिमाणवत का विधान किया है । इस से कर्मक्षेत्र की मर्यादा बांधी जाती है अर्थात् सीमा निश्चित की जाती है, उस निश्चित सीमा के बाहिर जा कर हिंसा, असत्य आदि पापाचरण का त्याग करना इस का प्रधान उद्दश्य रहा करता है। इस के अतिरिक्त दिकपरिमाणवत के संरक्षण के लिये निम्नलिखितं ५ बातों का
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