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प्रथम अध्याय
हिन्दी भाषा टीका सहित ।
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क्षेत्र में रह कर कर सकेगा जो उस ने दिक्परिमाणव्रत में जाने और आने के लिये रखा है, उस क्षेत्र से बाहिर न तो मर्यादित परिग्रह का रक्षण कर सकेगा और न उस की पूर्ति के लिये व्यवसाय । इस प्रकार दिकपरिमाणवत सीमित तृष्णा को और सीमित करने में सहायक एवं प्रेरक होता है।
२-उपभोगपरिभोगपरिमाणवत-जो एक बार भोगा जा चुकने के बाद फिर न भोगा जा सके, उस पदार्थ को भोगना, काम में लाना उपभोग कहलाता है । जैसे एक बार जो भोजन । है या जो पानी एक बार पीया जा चुका है, वह भोजन या पानी फिर खाया या पीया नहीं जा सकता, अथवा अंगरचना या विलेपन की जो वस्तु एक बार काम में आ चुकी है, जैसे वह फिर काम में नहीं आ सकती, इसी भान्ति जो २ वस्तुएं एक बार काम में आ चुकने के अनन्तर फिर काम में नहीं आती, उन वस्तुओं को काम में लाना उपभोग कहलाता है। विपरीत इस के जो वस्तु एक बार से अधिक काम में ली जा सकती है, उस वस्तु को काम में लेना परिभोग कहलाता है । जैसे आसन, शय्या, वस्त्र, वनिता श्रादि । अथवा जो चीज़ शरीर के अान्तरिक भाग से भोगी जा सकती है, उस को भोगना उपभोग है और जो चीज़ शरीर के बाहिरी भागों से भोगी जा सकती है, उस चीज़ का भोगना परिभोग है। सभी उपभोग्य और परिभोग्य वस्तुओं के सम्बन्ध में यह मर्यादा करना कि मैं अमुक अमुक वस्तु के सिवाय शेष वस्तुए उपभोग और परिभोग में नहीं लाऊगा, उस मर्यादा को उपभोगपरिभोगपरिमाणवत कहा जाता है।
इच्छाओं के संकोच के लिये दिकपरिमाणवत की अपेक्षा रहती है, जिस का वर्णन ऊपर किया जा चुका है, उस के श्राश्रयण से मर्यादित क्षेत्र से बाहिर का क्षेत्र और वहां के पदार्थादि से निवृत्ति हो जाती है, परन्तु इतने मात्र से मर्यादित क्षेत्र में रहे हुए पदार्थों के उपभोग और परिभोग की मर्यादा नहीं हो पाती है। मर्यादाहीन जीवन उन्नति की ओर प्रस्थित न हो कर अवनति की ओर प्रगतिशील होता है । इसी दृष्टि को सामने रखते हुए अचार्यों ने सातवें व्रत का विधान किया है । इस व्रत के आराधन से छठे व्रत द्वारा मर्यादित क्षेत्र में रहे हुए पदार्थों के उपभोग और परिभोग की भी मर्यादा हो जाती है। यह मर्यादा एक, दो, तीन दिन आदि के रूप में सीमित काल तक या यावज्जीवन के लिये भी की जा सकती है। उक्त मर्यादा के द्वारा पञ्चम व्रत के रूप में परिमित किये गये परिग्रह को और अधिक परिमित किया जाता है तथा अहिंसा की भावना को और अधिक विराट एवं प्रबल बनाया जाता है । यही इस की अणव्रतसम्बन्धिनी गुणपोषकता है!
उपभोग और परिभोग में आने वाली वस्तुएं तो अनेकानेक हैं तथापि शास्त्रकारों ने उन वस्तुओं का २६ बोलों में संग्रह कर दिया है। इन बोलों में प्रायः जीवन की आवश्यक सभी वस्तुए संगृहीत कर दी गई हैं । इन बोलों की जानकारी से व्रतग्रहण करने वाले को बड़ी सुगमता हो जाती है । वह जब यह जान लेता है कि जीवन के लिये विशेषरूप से किन पदार्थों की आवश्यकता रहती है ?, तब उन की तालिका बना कर उन्हें मर्यादित करना उस के लिये सरल हो जाता है। अस्तु, २६ बोलों का विवरण निम्नोक्त है
१- उल्लणिया--विधिप्रमाण-आर्द्र शरीर को या किसी भी आर्द्र हस्तादि अवयवों के पोंछने के लिये जिन वस्त्रों की आवश्यकता होती है, उन की मर्यादा करना।
२-दन्तवणविधिप्रमाण - दान्तों को साफ करने के लिये जिन पदार्थों की आवश्यकता होती है, उन पदार्थों की मर्यादा करना।
३ - फलविधिप्रमाण- दातुन करने के पश्चात् मस्तक और बालों को स्वच्छ तथा शीतल करने के लिये जिन वस्तुओं की आवश्यकता होती है, उन की मर्यादा करना, या बाल आदि धोने के लिये प्रांवला
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