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श्री विपासूत्रीय द्वितीय श्रुतस्कन्ध --
प्रथम अभ्यार
हैं, जो दारुण-भीषण ब्रह्मचर्य व्रत के पालक हैं, जो शरीरं पर ममत्व नहीं रख रहे हैं, जो तेजोले श्या-विशिष्ट तपोजन्य लब्धिविशेष, को संक्षिप्त किये हुए हैं, जो १४ पूर्वो' के ज्ञाता है, जो मतिज्ञान, श्रतज्ञान अवधिज्ञान
और मनःपर्यवज्ञान, इन चारों ज्ञानों के धारक हैं, जिन को समस्त अक्षरसंयोग का ज्ञान है, जिन्हों ने उत्कुटुक नामक आसन लगा रखा है, जो अधोमुख हैं, जो धर्म तथा श क ध्यानरूप कोष्ठक में प्रवेश किये हुए हैं अर्थात् जिस प्रकार कोष्ठक में धान्य सुरक्षित रहता है उसी प्रकार ध्यानरूप कोष्ठक में प्रविष्ट हुए आत्मवृत्तियों को सुरक्षित रख रहे हैं।
तदनन्तर आर्य जम्बूस्वामी के हृदय में विराकश्रुत के द्वितीय श्रुतस्कन्धोय सुखविपाक में वर्णित तत्त्वों के जानने की इच्छा उत्पन्न हुई और साथ में यह संशयः भी उत्पन्न हुआ कि दुःखविपाक में जिस तरह मृगापुत्र आदि का विषादान्त जीवन वर्णित किया गया है, क्या उसी तरह ही सुख वपाक में किन्हीं प्रसादान्त जीवनों का उपन्यास किया है ?, या उस में किसी भिन्न पद्धति का श्राश्रयण किया गया है ?, तथा उन्हें यह उत्सुकता भी उत्पन्न हुई जब विपाकसूत्रीय दुःखविपाक में मृगापुत्रादि का दुःखमूलक जीवन वृत्तान्त प्रस्तावित हो चुका है और उसी से सुखमूलक जीवनों की कल्पना भी की जा सकती है, तो फिर देखें भगवान् सुखविपाक में सुखमूलक जीवनों का कैसे वर्णन करते हैं ?
प्रस्तुत में जो जात, संजात, उत्पन्न तथा समुत्पन्न ये चार पद दिये हैं, इन में प्रथम जात शब्द साधारण तथा संजात शब्द विशेष, इसी भान्ति उत्पन्न शब्द भी सामान्य और समुत्पन्न शब्द विशेष का बोध कराता है । जात और उत्पन्न शब्दों में इतना ही भेद है कि उत्पन्न शब्द उत्पत्ति का और जात शब्द उस की प्रवृत्ति का सूचक है । तात्पर्य यह है कि पहले श्रद्धा, सशय, कौतूहल इन की उत्पत्ति हुई और पश्चात् इन में प्रवृत्ति हुई । इन के सम्बन्ध में अधिक ऊहापोह पृष्ठ १२ से ले कर १७ तक किया जा चुका है अस्तु ।।
जातश्रद्ध. जातसंशय, जातकौतूहल, संजातश्रद्ध, संजातसंशय, संजातकोतूहल, उत्पन्नश्रद्ध, उत्पन्नसंशय. उत्पन्न कौतहल. समत्पन्नश्रद्ध समुत्पन्नसंशय तथा समुत्पन्न कौतूहल श्री जम्बू स्वामी अपने स्थान से उठ कर खड़े होते हैं. खड़े होकर जहां सुधर्मा स्थविर विराजमान थे, वहां पर आते हैं, आकर श्री सुधर्मा स्वामी को दक्षिण ओर से तीन बार प्रदक्षिणा (परिक्रमा) की, प्रदक्षिणा कर के स्तुति और नमस्कार किया, स्तुति तथा नमस्कार कर के. आर्य सुधर्मा स्वामी के थोड़ी सी दूरी पर सेवा और नमस्कार करते हुए सामने बठे और हाथों को जोड़ कर विनयपूर्वक उन की भक्ति करने लगे।
_ -समणेणं जाव सम्पत्तेणं- यहां पठित जाव-यावत् पद से अभिमत पद पृष्ठ ५४३ पर लिखे जा चुके हैं। पाठक वहीं पर देख सकते हैं।
आर्य सुधर्मा स्वामी ने श्री जम्बू स्वामी की जिज्ञासापूर्ति के लिए जो कुछ फ़रमाया, उस का आदिम सूत्र इस प्रकार से है -
(१) १४ पूर्वो के नाम तथा उन का भावार्थ पृष्ठ ७ तथा ८ पर लिखा जा चुका है।
(२) प्रस्तुत में सुखविपाक के सम्बन्ध में श्री जम्बूस्वामी को क्या संशय उत्पन्न हुअा था ? या उस का क्या स्वरूप था ?, इस के सम्बन्ध में कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं मिल रहा है । इस सम्बन्ध में टीकाकार महानुभाव भी सर्वथा मौन है । तात्पर्य यह है कि जिस तरह भगवती सूत्र में टीकाकार ने भगवान् गौतम के संशय का स्वरूप वर्णित किया है, उसी भांति प्रस्तुत में कोई वर्णन नहीं पाया जाता, तथापि ज्ञाताधर्मकथाङ्ग सूत्र के प्रथम अध्ययन में प्रतिपादित संशयस्वरूप की भांति प्रस्तुत में कल्पना की गई है।
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