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श्री विपाकसूत्रीयद्वितीय श्रुतस्कन्ध
चक्र – गोलाकार शस्त्रविशेष, गदा - शस्त्रविशेष भुशुण्डी - शस्त्र विशेष, अवरोध- मध्य का कोट, शतघ्नी"Fast प्राणियों का नाश करने वाला शस्त्रविशेष (तोप) तथा छिद्ररहित कपाट, इन सब कारण उस नगर में प्रवेश करना बड़ा कठिन था, अर्थात् शत्रुओं के लिये वह दुष्प्रवेश था । वक्र धनुष से भी अधिक वक्र प्राकारकोट से वह नगर परिक्षिप्त परिवेष्टित था। वह नगर अनेक सुन्दर कंगूरों से मनोहर था। ऊंची अटारियों, कोट के भीतर आठ हाथ के मार्गों, ऊंचे २ कोट के द्वारों, गोपुरों-नगर के द्वारों, तोरणों- - घर या नगर बाहिरी फाटकों और चौड़ी २ सड़कों से वह नगर युक्त था। उस नगर का अर्गल - वह लकड़ी जिस से किवाड़ बन्द करके पीछे से आाड़ी लगा देते हैं (अरगल), इन्द्रकील (नगर के दरवाज़ों का एक अवयव जिस के आधार 'दरवाज़े के दोनों किवाड़ बन्द रह सकें) दृढ था और निपुण शिल्पियों द्वारा उन का निर्माण किया गया था, वहां बहुत से शिल्पी निवास किया करते थे, जिन से वहां के लोगों की प्रयोजनसिद्धि हो जाती थी, इसी लिए वह नगर लोगों के लिए सुखप्रद था । शृङ्गाटकों - त्रिकोण मार्गों त्रिकों - जहां तीन रास्ते मिलते हों, ऐसे स्थानों, चतुष्कों-चतुष्पथों, चत्वरों-जहां चार से भी अधिक रास्ते मिलते हों ऐसे स्थानों और नाना प्रकार के बर्तन आदि के बाजारों से वह नगर सुशोभित था । वह अतिरमणीय था । वहां का राजा इतना प्रभावशाली था कि उस ने अन्य राजाओं के तेज को फीका कर दिया था। अनेक अच्छे २ घोड़ों, मस्त हाथियों, रथों, गुमटी वाली पालकियों, पुरुष की लम्बाई जितनी लम्बाई वाली पालकियों, गाड़ियों और युग्यों अर्थात् गोल्लदेश में एक प्रकार की पालकियां, जिन के चारों ओर फिरती चौरस दो हाथ प्रमाण की वेदिका (कठहरा) होती है, से वह नगर युक्त था । उस नगर के जलाशय नवीन कमल और कमलिनियों से सुशोभित थे । वह नगर श्वेत और उत्तम महलों से युक्त था। वह नगर इतना स्वच्छ था कि अनिमेष – बिना झपके दृष्टि से देखने को दर्शकों का मन चाहता था । वह चित्त को प्रसन्न करने वाला था, उसे देखते २ खें नहीं थकती थीं, उसे एक बार देख लेने पर भी पुनः देखने की लालसा बनी रहती थी, उसे जब देखा जाय तब भी वहां नवीनता ही प्रतिभासित होती थी, ऐसा वह सुन्दर नगर था ।
- सव्वोउय० - यहां का बिन्दु - सव्वोउयपुप्फफलसमिद्धे रम्मे नंदणवणप्पगासे पासा - ए दस णिज्जे अभिरूवे पडिरूवे – इस पाठ का परिचायक है । सब ऋतुओं में होने वाले पुष्पों और फलों से परिपूर्ण एवं समृद्ध सर्वतुकपुष्पफलसमृद्ध कहलाता है । रम्य रमणीय को कहते हैं । मेरुपर्वत पर स्थित नन्दनवन की तरह शोभा को प्राप्त करने वाला - इस अर्थ का परिचायक नन्दनवनप्रकाश शब्द है । प्रासादीय शब्द - मन को हर्षित करने वाला, इस अथ का दर्शनीयशब्द - जिसे बार २ देख लेने पर भी पुन: देखने की लालसा बनी रहे इस अर्थ का एवं प्रतिरूप शब्द - जिसे जब भी देखा जाय तब भी वहां नवीनता ही प्रतीत हो, इस अर्थ का बोध कराता है ।
- दिव्वे० - यहां का बिन्दु - सच्चे सच्चोवार सन्निहियपाडिहेरे जागसहस्लभागपडिच्छर बहुजण अच्चे कवणमालपियस्स जक्वस्स जक्वायतणं - इन पदों का संसूचक है । इन पदों का भावार्थ निम्नोक्त है -
[प्रथम अध्याय
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१ - दिव्य - प्रधान को कहते हैं । २ - सत्य — यक्ष की वाणी सत्यरूप होती थी, जो कहता था वह निष्फल नहीं जाता था, अतः उस का स्थान सत्य कहा गया है । ३ - सत्यावपात - उस का प्रभाव सत्यरूप था अर्थात् उस का चमत्कार यथार्थ ही रहता था । ४ - सन्निहितप्रातिहार्य - वहां के अधिष्टायक वनमालप्रिय नामक यक्ष ने उस की महिमा बढ़ा रखी थी अर्थात् वहां पर मानी गई मनौती को सफल बनाने में वह कारण रहता था । ५ - यागसहस्रभागप्रतीच्छ - हज़ारों यज्ञों का भाग उसे प्राप्त होता था अर्थात् हज़ारों यज्ञों का हिस्सा वह प्राप्त किया करता था। वहां आकर बहुत लोग उस कृतवनमालप्रिय यक्ष के