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प्रथम अध्याय ]
हिन्दी भाषा टीका सहित ।
[५७३
१ – अहिसा, २ – सत्य, ३ - अस्तेय, ४ - ब्रह्मचर्य और ५ - अपरिग्रह इन पांच व्रतों की तरतमभाव से अणु और महान् संज्ञा है । इन का आंशिकरूप में पालन करने वाला व्यक्ति अणुव्रती कहलाता है और सर्व प्रकार से पालन करने वाले की महाव्रती संज्ञा है। महाव्रती अनगार होता है जब कि गृहस्थ को अणुवती कहते हैं, परन्तु जब तक कोई साधक इन के पालन करने का यथाविधि नियम ग्रहण नहीं करता तब तक वह न तो महाव्रतो और नाहिं अणुव्रती कहला सकता है। ऐसी अवस्था में वह अती कहलायेगा । अतः श्रात्मय के अभिलाषी मानव प्राणी को यथाशक्ति धम के श्राराधन में उद्योग करना चाहिये । यदि वह सर्वविरातधर्म-साधुधर्म के पालन में असमर्थ है तो उसे देशविरतिधम - श्रावकधर्म के अनुष्ठान या आराधन में यत्न करना चाहिये । जन्ममरण की परम्परा से छुटकारा प्राप्त करने के लिये धर्म के श्रालम्बन के सिवा और कोई उपाय नहीं है... ' इत्यादि वीर प्रभु की पवित्र सुधामयी देशना को अपने २ कर्णपुटों द्वारा पान कर के संतृप्त हुई जनता प्रभु को यथाविधि वन्दना तथा नमस्कार करके अपने २ स्थान को वापिस चली गई और महाराज श्रदीनशत्रु तथा महारानी धारिणी देवी भी अपने अनुचरसमुदाय के साथ प्रभु को सविधि बन्दना नमस्कार कर के अपने महल की ओर प्रस्थित हुए ।
भगवान् की देशना का सुबाहुकुमार के हृदय पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा, वह उन के सन्मुख उपस्थित हो कर बड़ी नम्रता से बोला कि भगवन् ! अनेक राजे महाराजे और धनाढ्य आदि अनेकानेक पुरुष सांसारिक वैभव को त्याग कर आप श्री की शरण में श्राकर सर्वविरतिरूप संयम का ग्रहण करते हैं, परन्तु मुझ में उस के पालन की शक्ति नहीं है, इस लिये मुझे तो गृहस्थोचित देशविरतिधर्म के पालन का ही नियम कराने की कृपा करें ?, सुबाहुकुमार के इस कथन के उत्तर में भगवान् ने कहा कि जिस में तुम्हारी श्रात्मा को सुख हो, वह करो, परन्तु धर्मकार्य में विलम्ब नहीं होना चाहिये । तदनन्तर सुबाहुकुमार ने भगवान् के समक्ष पांच अणुव्रतों और सात शिक्षावतों के पालन का नियम करते हुए देशविरति धर्मं को छांगीकार किया, और वह भगवान् को यथाविधि वन्दना नमस्कार करके अपने रथ पर सवार हो कर अपने स्थान को वापिस चला गया । प्रस्तुत सूत्र जो कुछ लिखा है, उस का यह सारांश है । इस पर से विचारशील व्यक्ति को अनेकों उपयोगी शिक्षाओं का लाभ हो सकता है। उन में से कुछ निम्नोत हैं
१ - धर्म केवल सुनने की वस्तु नहीं किन्तु आचरण में लाने योग्य पदार्थ हैं। जैसे औषधि का वार २ नाम लेने या पास में रख छोड़ने से रोगी पर उस का कोई प्रभाव नहीं होता और नाहि वह रोगमुक्त हो सकता है, इसी प्रकार धर्म के केवल सुन लेने से किसी को लाभ प्राप्त नहीं हो सकता जब तक सुने हुए धर्मोपदेश को जीवन में उतारने अर्थात् आचरण में लाने का यत्न न किया जाय। जिस तरह रोग की निवृत्ति औषधि के निरन्तर सेवन से होती है, उसी प्रकार भवरोग की निवृत्ति के लिये धर्म - औषध का सेवन करना आवश्यक है न कि केवल श्रवण कर लेना । इसलिये जो व्यक्ति गुरुजनों से सुने हुए सदुपदेश को उनके कथन के अनुसार आचरण में लाता है वही सच्चा श्रोता अथवा जिज्ञासु हो सकता है। सुबाहुकुमार ने भगवान् की धर्मदेशना को केवल सुन लेने तक ही सीमित नहीं रक्खा किन्तु उस को आचरण में लाने का भी स्तुत्य प्रयास किया । २ - दिये गये उपदेश का ग्रहण अर्थात् आचरण में लाना श्रोता की रुचि, शक्ति और विचार पर निर्भर करता है। सभी श्रोता एक जैसी रुचि, शक्ति और विचार के नहीं होते। बहुतों की श्रवण करने से धर्म में
(१) धर्मदेशना का विस्तृत वर्णन श्री औपपातिक सूत्र में किया गया है। अधिक के जिज्ञासु पाठक वहां देख सकते हैं।
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