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विपाकसूत्रीयद्वितीय श्रुतस्कन्ध
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सवार होकर जिधर से आया था, उधर को चल दिया ।
टीका - जव श्रमण भगवान् महावीर स्वामी पुष्पकरण्डक उद्यान में पधारे तो उन के पधारने का समाचार हस्तिशीर्ष नगर में विद्युत्-बिजली की भान्ति फैल गया । नगर की जनता में हर्ष तथा उत्साह की लहर दौड़ गई। सभी भावुक नरनारी प्रभु के दर्शनार्थ उद्यान की ओर प्रस्थान करने की तैयारी में लग गये । इधर महाराज अदीनशत्रु श्री भगवान् के आगमन को सुन कर बड़े प्रसन्न हुए और प्रभुदर्शनार्थ पुष्पकरण्डक उद्यान में जाने की तैयारी करने लगे। उन्हों ने अपने हस्तिरत्न और चतुरंगिणी सेना को ससज्जित हो तैयार रहने का आदेश दिया और स्वयं स्नानादि आवश्यक कियाओं से निवृत्त हो वस्त्राभूषण पहन कर हस्तिरत्म पर सवार हो महारानी धारिणीदेवी को तथा सुबाहुकुमार को साथ ले चतुरंगिणी सेना के साथ बड़ी सजधज से भगवान् के दर्शनार्थ उद्यान को ओर चल पड़े । उद्यान के समीप पहुंच कर जहां उन्हों ने पतितपावन श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को देखा वहां उन्हों ने हस्तिरत्न से नीचे उतर कर अपने पांचों ही, १ - खङ्ग, २ – छत्र ३ – मुकुट, ४ – चमर और ५ - उपानत् इन राजचिह्नों को त्याग दिया और पांच अभिगमों के साथ वे भगवान के चरणों में उपस्थित होने के लिए पैदल चल पड़े । भगवान् के चरणों में उपस्थित होकर यथाविधि वन्दना, नमस्कार करने के अनन्तर उचित स्थान पर बैठ गए । महाराज श्रतिरात्रु के यथास्थान पर बैठ जाने के अनन्तर महारानी और उनकी अन्य दासियें भी प्रभु को वन्दना नमस्कार कर के यथास्थान बैठ गई ।
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[ प्रथम अध्याय
प्रभु महावीर स्वामी के समवसरण में उन के पावन दर्शन तथा उपदेश श्रवणार्थ आई हुई देवपरिषद्, ऋषिपरिषद्, मुनिपरिषद् और मनुजपरिषद् आदि के अपने २ स्थान पर अवस्थित हो जाने के बाद श्रमण भगवान् महावीर ने धर्मदेशना आरम्भ की। भगवान् बोले
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यह जीवात्मा कर्मों के बन्धन में दो कारणों से आता है। वे दोनों राग और द्वेष के नाम से प्रसिद्ध हैं । ये राग और द्वेष इस आत्मा को घटीयंत्र की तरह संसार में घुमाते रहते हैं और विविध प्रकार दुःखों का भाजन बनाते हैं। जब तक संसारभ्रमण के हेतुभूत इस राग द्वेष को साधक आत्मा अपने से पृथकू करने का यत्न नहीं करता, तब तक उस की सारी शक्तियें तिरोहित रहती हैं, उस का आत्मविकास रुका रहता है। आत्मा की प्रगति में प्रतिबन्धरून इस राग और द्वेष का जब तक समूलघात नहीं होने पाता । तब तक इस श्रात्मा को सच्ची शान्ति का लाभ नहीं हो सकता । इस के लिये साधक पुरुष को संयम की ओर ध्यान देने की आवश्यकता है। संयमशील आत्मा ही राग द्वेष पर विजय प्राप्त करके आत्मशक्तियों के विकास द्वारा शान्तिलाभ कर सकता है। मानवजीवन का वास्तविक उद्देश्य आध्यात्मिक शांति प्राप्त करना है । उस के लिये मानत्र को त्यागमार्ग का अनुसरण करना होगा । त्याग के दो स्वरूप हैं। देशत्याग और सर्वत्याग । सर्वत्याग का हो दूसरा नाम सवविरतिधर्म या अनगारधर्म है। इसी प्रकार देशविरति या सरागधमं को देशत्याग के नाम से कह सकते हैं । दूसरे शब्दों में कहें तो देशविरतिधर्म गृहस्थधर्म है और सर्वविरतिधर्म मुनिधर्म कहलाता है। जब तक साधक - श्रात्मा सर्वप्रकार के सावद्य व्यापार का परित्याग करके संयममार्ग का अनुसरण नहीं करता, तब तक उसे सच्ची शान्ति उपलब्ध नहीं हो सकती । यह ठीक है कि सभी साधक एक जैसे पुरुषार्थी नहीं हो सकते, अतः संयममार्ग में प्रवेश करने के लिये द्वाररूप द्वादशविध गृहस्थधम जिस का दूसरा नाम देशविरतिधर्म है, प्रविष्ट हो कर मोक्षमार्ग के पथिक होने का प्रयत्न करना भी उत्तम है । देशत्याग सर्वत्याग के लिये आरम्भिक निस्सरणी है। पांच अणुव्रत और सातशिक्षावत इस तरह प्रारह व्रतों के पालन की प्रतिज्ञा करने वाला साधक भी विकास - मार्ग की ओर ही प्रस्थान करने वाला हो सकता है
(१) अभिगमों का स्वरूप पृष्ठ २९ की टिप्पण में लिखा जा चुका है।