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श्री विपाकसुत्रीय द्वितीय श्रुतस्कन्ध --
[प्रथम अध्याय
आदि की तथा किसी भी भारवाहक मनुष्य आदि की शक्ति की परवाह न कर के निर्दयतापूर्वक परिमाण से अधिक बोझ लाद देना, अथवा उन की शक्ति से अधिक काम उन से लेना निरपेक्षत्रतिभार और सदभावनापूर्वक' अतिभार लादना सापेक्षअतिभार कहा जाता है । निरपेक्ष प्रतिभार का श्रावक के लिये निषेध किया गया है।
५-भक्तपानव्यच्छेद- अन्न पानी का न देना, अथवा उस में बाधा डालना भक्तपानव्यवच्छेद कहलाता है । भक्तपानव्यवच्छेद द्विपदभक्तपानव्यवच्छेद- मनुष्य आदि को भक्तपान न देना, और चतुष्पदभक्तपानव्यवच्छेद - पशुओं को आहार पानी न देना, अथवा-अर्थभक्तपानव्यवच्छेद और अनर्थभक्तपानव्यवच्छेद इन भेदों से दो प्रकार का होता है । किती प्रयोजन को लेकर आहार पानी न देना अर्थभक्तपानव्यवच्छेद और बिना कारण हो आहार पानी न देना अनर्थभकानव्यवच्छेद कहलाता है। अनर्थभक्तपानव्यवच्छेद श्रावक के लिये त्याज्य होता है, तथा अर्थभक्तपानव्यवच्छेद के सापेक्षभक्तपानव्यवच्छेद-रोगादि के कारण से आहार पानो न देना तथा निरपेक्षभकपानव्यवच्छेद - निर्दयतापूर्वक आहार पानी का न देना, ऐसे दो भेद होते हैं । श्रावक के लिये निरपेक्षभक्तपानव्यवच्छेद का निषेध किया गया है। ...कुछ विचारकों का "-अहिंसा कायरता है - " यह कहना नितान्त भ्रान्तिपूर्ण है और उन के अहिंसासम्बन्धी अबोध का परिचायक है। अहिंसा का गम्भीर ऊहापोह करने से उस में कोई तथ्य प्रतीत नहीं होता। देखिए -कायरता का प्रतिपक्षी कोरता है । वीरता का अर्थ यदि-अस्त्रशस्त्रहीन एवं दीन दुःखियों के जीवन को लूठ लेना, जो मन में आए सो कर डालना या निरंकुश बन जाना, इतना ही है, तो दिन भर झूठ बोलने वाला दूसरों की धनादि सम्पत्ति चुराने वाला, सतियों के सतीत्व को लूटने वाला, दुनिया भर की जघन्य प्रवृत्तियों से धन कमा कर अपनी तिजोरियां भरने वाला, क्या वीर नहीं कहलायेगा ?
और क्या ऐसे वोरों से सामाजिक तथा राष्ट्रीय जीवन सुरक्षित रह सकेगा !, उत्तर स्पष्ट है, कभी नहीं । क्योंकि जिस समाज या राष्ट्र में ऐसे नराधम व्यक्ति उत्पन्न हो जायेंगे, वह समाज या राष्ट्र अपने अन्तःस्वास्थ्य तथा बाह्यस्वास्थ्य से हाथ धो बैठेगा । जैसे स्वास्थ्यनाश का अन्तिम कटु परिणाम मृत्यु होता है, वैसे ही समाज
और राष्ट्र के स्वास्थ्यनाश का अन्तिम परिणाम उस का सर्वतोमुखी पतन होगा । अतः वीरता किसी के जीवना. पहरण में नहीं होती, प्रत्युत अपना कर्तव्य निभाने में, दीन दुखियों के जीवन के संरक्षण एवं पोषण में तथा प्रत्येक दु:खमूलक प्रवृत्ति से सुरक्षित रहने में होता है। जो मानस वीरता के पावन सौरभ से सुरभित होता है वह किसी भी कार्य को करने से पहले उस में न्याय अन्याय की जांच करता है। अन्याय से उसे जब कि न्याय को वह अपना आराध्य देव समझता है, जिस के मान को सुरक्षित रखने के लिये यदि उसे अपने जीवन का बलिदान करना पड़े तो भो वह उस से विमुख नहीं होता । ऐसी ही वीरता का मूलस्रोत भगवती अहिंसा है।
इतिहास बताता है कि अहिंसा के वीरों ने हर समय न्याय की रक्षा की है । न्याय की रक्षा के लिये शत्रुओं का दमन करना उन्हों ने अपना कर्तव्य समझा था। राम रावण के साथ न्याय को जीवित रखने के लिये ही लड़े थे । रावण ने सती सीता को चुराकर एक अन्यायपूर्ण अक्षम्य अपराध किया था। सीता लौटाने के लिए उसे समझाया गया परन्तु जब वह नहीं माना तो उस की अन्यायपूर्ण प्रवृत्तियों को ठीक करने के लिए तथा सतियों के सतीत्व की रक्षा के लिए राम जैसे अहिंसक ने अपने को युद्ध के लिए सन्नद्ध
(१) प्रस्तुत में सद्भावनापूर्वक अतिभार लादने का अभिप्राय इतना ही है कि उद्दण्ड पशु आदि को शिक्षित करने, अथवा उसे अंकुश में लाने के लिये, अथवा-किसी विशेष परिस्थिति के कारण, अथवा उपायान्तर के न होने से उन्मत्त व्यक्ति पर कदाचित् अतिभार रखना ही पड़ जाए तो उस में निर्दयता के भाव न होने से वह सापेक्षबन्ध श्रादि की भान्ति गृहस्थ के धर्म का बाधक नहीं होता।
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