________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir
www.kobatirth.org
५६०]
श्री विपाकसूत्रीय द्वितीय श्रुतस्कन्ध
[प्रथम अध्याय
गर्भवती रानी जिन कारणों से गर्भ को किसी प्रकार का कष्ट या हानि पहुँचने की संभावना होती है उन से वह बराबर सावधान रहने लगी। अधिक उष्ण, अधिक ठंडा, अधिक तीखा या अधिक खारा भोजन करना उस ने त्याग दिया। हित और मित भोजन तथा गर्भ को पुष्ट करने वाले अन्य पदार्थों के यथाविधि सेवन से वह अपने गभ का पोषगा करने लगी. बालक पर गर्भ के समय संस्कारों का बहुत अपूर्व प्रभाव होता है । विशेषत: जो प्रभाव उस पर उस की माता की भावनाओं का पड़ता है, वह तो बड़ा विलक्षण होता है ! तात्पर्य यह है कि माता को अच्छी या बुरी जैसी भी भावनाएं होंगी, गभस्थ जीव पर वैसे ही संस्कार अपना प्रभुत्व स्थापि कर लेंगे । बालक के जीवन का निर्माण गर्भ से ही चालू हो जाता है, अत: गर्भवती माताओं को विशेष सावधान रहने की आवश्यकता होती है। भारतीय सन्तान की दुबलता के कारणों में से एक कारण यह भी है कि गर्भ के पालन पोषण और उस पर पड़ने वाले संस्कारों के विषय में बहुत कम ध्यान रखा जाता है। गभधारण के पश्चात् पुरुषसंसर्ग न करना, वासनापोषक प्रवृत्तियों से अलग रहना, मानस को हर तरह से स्वच्छ एवं निर्मल बनाए रखना ही स्त्री के लिए हितावह होता है, परन्तु इन बातों का बहुत कम स्त्रियां ध्यान रखतो हैं । उसी का यह दूषित परिणाम है कि अाजकल के बालक दुर्बल, अल्पायुषी और बुरे संस्कारों वाले पाए जाते हैं, परन्तु महारानी धारिणी इन सब बातों को भली भान्ति जानतो थीं। अतएव वह गभस्थ प्राणो के जीवन के निर्माण एवं कल्याण का ध्यान रखती हुई अपने मानस को दूषित प्रवृत्तियों मे सदा सुरक्षित रख रही थी।
तदनन्तर लगभग नवमास के परिपूर्ण होने पर उसने एक सर्वांगसुन्दर पुत्ररत्न को जन्म दिया । जातकर्मादि संस्कारों के कराने से उस नवजात शिशु का "सुबाहुकुमार" ऐसा गुणनिष्पन्न नाम रक्खा । तत्पश्चात् दूध पिलाने वाली क्षीरधात्री स्नान कराने वाली मज्जनधात्री, वस्त्रभूषण पहराने वालो मंडन धात्री. क्रीडा कराने वाली क्रीडापनधात्री और गोद में रखने वालो अंधात्री, इन पांच धाय माताओं की देखरेख में वह गिरिकन्दरागत लता तथा द्वितीया के चन्द्र की भान्ति बढने लगा । इस प्रकार यथाविधि पालन और पोषण से वृद्धि को प्राप्त होता हुआ सुबाहुकुमार जब आठ वर्ष का हो गया तो माता पिता ने शभ मुहूत में एक सुयोग्य कला. चार्य के पास उस की शिक्षा का प्रबन्ध किया । कलाचाय ने भी थोड़े ही समय में मनुष्य की ७२ कलाओं में निपुण कर दिया और उसे महाराज को समर्पित किया। अब सुबाहुकुमार सामान्य बालक न रह कर विद्या,
य रूप और यौवन सम्पन्न होकर एक श्रादर्श राजमार बन गया तथा मानवोचित भोगों के उपभोग करने हमवथा योग्य हो गया। तब माता पिता ने उस के लिए पांच सौ भव्य प्रासाद और एक विशाल भवन तैयार कराया और पुष्पचूलाप्रमुख पांच सौ राजकुमारियों के साथ उस का विवाह कर दिया, और प्रेमोपहार के रूप में सवणकोटि २ श्रादि प्रत्येक वस्तु ५०० की संख्या में दी। तदनुसार सबाहकुमार भी उन पांच सौ प्रासादों में उन राजकुमारियों के साथ यथारुच मानवोचित विषयभोगों का उपभोग करता हुअा सानन्द समय व्यतीत करने लगा। यह है सूत्रवर्णित कथासन्दर्भ का सार जिसे सूत्रानुसार अपने शब्दों में व्यक्त किया गया है।
हस्तिशीर्ष नगर तथा उस के पुष्पकरंडक उद्यान का जो वर्णन सूत्र में दिया है उस पर से भारत की प्राचीन वैभवशालीनता का भलीभान्ति अनुमान किया जा सकता है । अाज तो यह स्थिति भारतीय जनता की कल्पना से भी परे की हो गई है, परन्तु आज की स्थिति को सौ दो सौ वर्ष पूर्व के इतिहास से मिला कर देखा जाय तथा इसी क्रम से अढ़ाई, तीन हजार वर्ष पूर्व की स्थिति का अन्दाजा लगाया जाय तो मालूम होगा कि
(१) ७२ कलाओं का सविस्तर वर्णन १०८ से ले कर ११५ तक के पृष्ठों में किया जा चुका है।
(२) सुवर्णकोटि आदि का सविस्तर वर्णन ४७७ से ले कर ४७८ तक के पृष्ठों पर किया गया है । अन्तर मात्र इतना है कि वहां कुमार सिंह सेन का वर्णन है जब कि प्रस्तुत में सुबाहुकुमार का ।
For Private And Personal