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श्री विपाकसूत्रीय द्वितीय श्रुतस्कन्ध--
[प्रथम अध्याय
कर सिद्ध पद को प्राप्त किया था। प्रस्तुत द्वितीय श्रुतस्कन्धीय द्वितीय अध्याय के भद्रनन्दी इन से भिन्न थे। जन्मस्थान तथा माता पिता आदि की भिन्नता हो इन के पार्थक्य को प्रमाणित कर रही है ।
९-महाचन्द्र-आप का जन्म चम्पा नगरी में हुआ था, पिता का नाम महाराज दत्त तथा माता का श्री दत्तवती था । श्रीकान्त जिन में प्रधान थी ऐसी ५०० राजकन्यानों के साथ श्राप का पाणिग्रहण हुआ था। चिकित्सिकानरेश महाराज जितरात्र के भव में आप ने तपस्विराज श्री धमवीर्य का पारणा करा कर अपने भविष्य को उन्नत बनाते हुए मनुष्यायु का बन्ध किया और वर्तमान भव में भगवान महावीर स्वामी के चरणों में दीक्षित हो कर साधुधर्म के सम्यक् आराधन से परम साध्य निर्वाण पद को प्राप्त किया था।
१०-वरदत्त-श्राप के पूज्य पिता का नाम साकेतनरेश महाराज भित्रनन्दी था । माता श्रीकान्तादेवी थी । आप का जिन ५०० राजकुमारियों के साथ पाणिग्रहण हुआ था, उन में वर सेना राजकुमारी प्रधान थी, अर्थात् यह आप की पटरानी थी। शतद्वारनरेश महाराज विमलवाहन के भव में आप ने तपस्विराज श्री धर्मरुचि जी महाराज का विशुद्ध परिणामों से पारणा करा कर संसार को परिमित करने के साथ २ मनुष्यायु का बन्ध किया था। वर्तमान भव में चरम तीर्थंकर भगवान् महावीर स्वामी के पवित्र चरणों में साधुव्रत धारण कर तथा उस के सम्यक पालन से कालमास में काल करके सौधर्म नामक प्रथम देवलोक में उत्पन्न हुए।
आज कल आप दैविक संसार में अपने पुण्यमय शुभ कर्मों का सुखोपभोग कर रहे हैं । वहां से च्यव कर आप ११ भव करेंगे और अन्त में महाविदेह क्षेत्र में दीक्षित हो कर जन्म मरण का अन्त कर डालेंगे। सिद्ध, बुद्ध, अजर और अमर हो जाएंगे।
द्वितीय श्रुतस्कन्ध सुखविपाक के पूर्वोक्त दश अध्ययनों में महामहिम श्री सुबाहुकुमार जी आदि समस्त महापुरुषों का ही जीवनवृत्तान्त क्रमश: प्रस्तावित हुआ है, इसीलिये सूत्रकार ने सुबाहुकुमार आदि के नामों पर अध्ययनों का नामकरण किया है, जो कि उचित ही है।
आर्य जम्बू स्वामी के"- भदन्त ! श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने सुखविपाक का क्या अर्थ वर्णन किया है ? अर्थात् उस में किन २ महापुरुषों का जीवनवृत्तान्त उपन्यस्त हुआ है ?-" इस प्रश्न के उत्तर में
आर्य सुधर्मा स्वामी ने"--सुखविपाक में भगवान् ने श्री सुबाहुकुमार, श्री भद्रनन्दी आदि दश अध्ययन फ़रमाये हैं, तात्पर्य यह है कि इन दश महापुरुषों के जीवनवृत्तान्तों का उल्लेख किया है-"यह उत्तर दिया था, परन्तु इतने मात्र से प्रश्नकर्ता श्री जम्बू स्वामी की जिज्ञासा पूण नहीं होने पाई, अत: फिर उन्हों ने विनम्र शब्दों में अपने परमपूज्य गुरुदेव श्री सुधर्मा स्वामी के पावन चरणों में निवेदन किया । वे बोले - भगवन् ! यह ठीक है कि श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने सुखविधाक के दश अध्ययन फ़रमाये हैं, परन्तु उस के सुबाहुकुमार नामक प्रथम अध्ययन का उन्हों ने क्या अर्थ प्रतिपादन किया है ?, इस प्रश्न के उत्तर में आर्य सुधर्मा स्वामी ने जो कुछ फ़रमाया, उस का वर्णन अग्रिम सूत्र में किया गया है।
लोकोत्तर ज्ञान, दर्शन आदि गुणों के गण अर्थात् समूह को धारण करने वाले तथा जिनेन्द्र प्रवचन की पहले पहल सूत्ररूप में रचना करने वाले महापुरुष गणधर कहलाते हैं । चरम तीर्थंकर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के-१-इन्द्रभूति, २-अग्निभूति, ३ --वायुभूति, ४--व्यक्तस्वामी,५ -सुधर्मास्वामी, ६-मण्डितपुत्र, ७-मौर्यपुत्र, ८-अकम्पित, ९-अचलभ्राता, १०-मेतार्य, ११-प्रभास, ये ११ गणधर थे। ये सभी वैदिक विद्वान् ब्राह्मण थे। अपने २ मत की पुष्टि के लिये शास्त्रार्थ करने के लिये भगवान् महावीर के पास आये थे । 'अपने २ संशयों का भगवान् से सन्तोष-जनक उत्तर पाकर सभी उन के
(१) संशय तथा उनके उत्तरों का विवरण श्री अगरचन्द भैरोंदान सेठिया बीकानेर द्वारा प्रकाशित जनसिद्धान्त बोलसंग्रह के चतुर्थ भाग में देखा जा सकता है।
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