Book Title: Vipak Sutram
Author(s): Gyanmuni, Hemchandra Maharaj
Publisher: Jain Shastramala Karyalay

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Page 597
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir नवम अध्याय हिन्दी भाषा का सहित। [५०९ से, महती कान्ति से, महान् सैन्यादि रूप बल से, महान् समदाय से अनेक प्रकार के सुन्दर २ साथ २ बजते हुए शंख (वाद्यविशेष), पणव-ढोल, पटह - बड़ा ढोल (नक्कारा , भेरी- वाद्यविशेष, झल्लरि-वलयाकारवाद्यविशेष (झालर) खरमुखो - वाद्यविशेष, हुडुक्क – वाद्यविशेष, मुरज - वाद्यविशेष, मृदंग --- एक प्रकार का बाजा, जो ढोलक से कुछ लम्बा होता है (तबला), दुदुभि -वाद्यविशेष के शब्दों की प्रतिध्वनि के साथ । --करयल जाव वद्धावेति- यहां के जाव-यावत् पद से - परिग्गहियं दसणहं अंजलिं मत्थप का वेसमण रायं जपविजपण--इन पदों का ग्रहण करना चाहिये । इन का अर्थ मूलार्थ में कर दिया गया है। -हतुट्ठ विउलं- यहां के बिन्दु से -चित्तमाण दिए पीइमणे परमसोमणस्सिर हरिमवसविसप्पमार्णाहयप, धाराहयकलंबुगं पिव समुस्सलियरोमकूवे- इन पदों का ग्रहण करना चाहिये । इन का अर्थ पृष्ठ २२७ तथा २२८ पर लिखा जा चुका है । अन्तर मात्र इतना है कि वहां ये एक स्त्री के विशेषण हैं जब कि प्रस्तुत में एक पुरुष के । अर्थगत कोई भिन्नता नहीं है । -आमंतेति जाव सक्कारेति- यहां के पठित जाव-यावत् पद से पृष्ठ ५०४ पर पढ़े गयेराहाते जाव पाछत्त, सुहासणवरगते-से ले कर ---जाव अलंकारेण - यहां तक के पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है । तथा - मित्त० जाव परिजण - यहां के जाव-यावत् पद से - गाइ-णियग सयण-संबन्धि-इन पदों का ग्रहण करना चाहिये।। प्रस्तुत में युवराज पुष्यनन्दी का देवदत्ता के साथ विवाह बड़े समारोह से सम्पन्न हुआ, यह वर्णन किया गया है । तदनन्तर क्या हुआ ? अब सूत्रकार उस का वर्णन करते हैं मूल-'तते णं से पूमणंदिकुमारे देवदलाए दारियाए सद्धिं उप्पि पासायवरगते फुट्टमाणेहि मुयंगमस्थएहिं वत्तीसइवद्धनाडएहिं जाव विहरइ । तते णं से वेसमणे राया अन्नया कयाइ कालधम्मुणा संजुत्ते । नीहरणं जाव राया जाए पुसणंदी । तते णं से पूसणंदी राया सिराए देवीए मायाभत्ते यावि होत्था । कल्लाकल्लि जेणेव सिरी देवी तेणेव उवागच्छइ २ सिरीए देवीए पायवडणं करेति । सतपागसहस्सपागेहि तेल्लेहिं अभंगावेति । अट्ठसुहाए मंससुहाए तयासुहाए रोमसुहाए चउबिहाए संवाहणाए संवाहावेति । सुरहिणा गधवट्टएणं उन्बट्टावेति २ निहिं उदएहिं मज्जावेति. तंजहा-उसिणोढएणं सीओदएणं गंधोदएणं । विउलं है, अर्थात सर्व शब्द का प्रयोग अल्प अर्थ में भी उपलब्ध होता है। अतः प्रस्तत में ऋद्ध आदि की महत्ता दिखलाने के लिए सूत्रकार ने ऋद्धि आदि शब्दों के साथ महता इस पद का प्रयोग किया है। (१) छाया-ततः स पुष्यनन्दिकुमारो देवदत्तया दारिकया सार्द्धमुपरि प्रासादवरगतः स्फुट्यमानेः मृदंगमस्तकः द्वात्रिंशद्वद्वनाटक: यावद् विहरति । ततः स वैश्रमणो राजा अन्यदा कदाचित् कालधर्मेण संयुक्तः निस्सरणं यावद् राजा जातः पुष्यनन्दी । ततः म पुष्यनन्दी राजा श्रियो देव्याः मातृभक्तश्चाप्यभवत् कल्याकल्यि यत्रैव श्रीदेवी तत्रैवोपरागच्छति २, श्रियो देव्या: पादपतनं करोति, शतपाकसहस्त्रपाकाभ्यां तैला. म्यामभ्यं गयति । अस्थिसुखया मांससुखया त्वक सुखया रोमसुखया चतुर्विधया संवाहनया संवाहयति । सुरभिणा गन्धवर्तकेनोद्वर्तयति २ त्रिभिरुदकैर्मज्जयति, तद्यथा--- उष्णोदकेन. शीतोदकेन, गंधोदकेन । विपुल नशनं भोजयति, श्रियां देव्यां स्नातायां यावत् प्रायश्चित्तायां यावत् जिमितमुक्तोत्चरागतायां ततः पश्चात् स्नाति वा भुक्ते वा उदारान् मानुष्यकान् भोगभोगान् भुजानो विहरति । For Private And Personal

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