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हिन्दी भाषा टीका सहित ।
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दशम अध्याय ]
है । वीर्यनाश से शारीरिक, मानसिक एवं आत्मिक शक्ति का ह्रास होता है । बुद्धि मलिन हो जाती है। किसी भी काम में उत्साह नहीं रहने पाता, तथा यह भी ठीक है कि मैथुनसेवी व्यक्ति दूसरों के अनुचित दबाव से झुक जाता है, उसकी प्रवृत्ति दब्बू हो जाती है, वह लोगों के अपमान का भाजन बन जाता है, तथा और मो दुर्गा हैं जिनका वह शिकार हो जाता है। इस के अतिरिक्त क्या विषयसेवन में हिंसा (प्राविध) की संभावना भी रहती है ?
(
उत्तर - हां, अवश्य रहती है। शास्त्रों में लिखा है कि जिस समय कामप्रवृत्तिमूलक स्त्री और के पुरुष का सम्बन्ध होता है, उस समय असंख्यात संख्यातीत ) जीवों की विराधना होती है । स्त्री पुरुष सम्बन्ध के समय होने वाले प्राणिविनाश के लिये शास्त्रों में एक बड़ा ही मननीय उदाहरण दिया है। वहां लिखा है कि कल्पना करो कि कोई पुरुष एक बांस की नलिका में रूई या बूर को भर कर उसमें अग्नि के समान तपी हुई लोहे की सलाई का प्रवेश करदे, तो उससे रूई या बूर जल कर भस्म हो जाता है। इसी तरह स्त्री पुरुष के संगम में भी असंख्यात संमूच्छिम त्रस जीवों का विनाश होता है। यहां नलिका के समान स्त्री की जननेन्द्रिय और शलाका के समान पुरुप्रचिन्ह तथा तूल- रूई के सदृश वे संमूच्छिम जीव हैं, जो दोनों के संगम से मर जाते हैं। इस लिये विषय-मैथुन - प्रवृत्ति जहां अन्य अनर्थों की उत्पादिका है, वहां वह हिंसामूलक भी है । इसी जीवविराधना को लक्ष्य में रखकर ही तत्त्ववेत्ता महापुरुषों ने ब्रह्मचर्य के पालन का उपदेश दिया है। इस के विपरीत जो मानव प्राणी ब्रह्मचर्य से पराङ्मुख होकर निरन्तर विषयसेवन में प्रवृत्त रहते हैं, वे अपना शारीरिक और मानसिक बल खोने के साथ २ जीवों की भी भारी संख्या में विराधना करते हुए अधिक से अधिक पतन की ओर प्रस्थान करते हैं । तत्र पापकर्मों के उपचय से उन की आत्मा इतनी भारी हो जाती है कि उन को ऊर्ध्वगति की प्राप्ति संभव हो जाती है और उन्हें नारकीय दुःखों का उपभोग करना पड़ता है 1
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पृथिवीश्री नाम की वेश्या के नरकगमन का कारण विषयासक्ति ही अधिक रहा है । उस ने इस जघन्य सावद्य प्रवृत्ति में इतने अधिक पापकर्म उपार्जित किये कि जिन से अधिक प्रमाण में भारी हुई उस की आत्मा को छठी पृथिवी में उत्पन्न हो कर अपनी करणी का फल पाना पड़ा ।
भगवान् कहते हैं कि गौतम ! नरक की भवस्थिति पूरी कर फिर वह इसी वर्धमानपुर नगर में धनदेव सार्थवाह की भार्या प्रियंगुश्री के उदर में कन्यारूप से उत्पन्न हुई अर्थात् गर्भ में आई । लगभग नवमास पूरे होने के अनन्तर प्रियंगुश्री ने एक कन्यारत्न को जन्म दिया। जन्म के बाद नामसंस्कार के समय उस का अंजूश्री नाम रक्खा गया । उस का भी पालन, पोषण, और संवर्धन देवदत्ता की तरह सम्पन्न हुआ, तथा उस का रूपलावण्य और सौन्दर्य भी देवदत्ता की भांति पूर्व था ।
(१) मेहुणे भंते! सेवमाणस्स केरिसिर संजमे कज्जइ ? गोयमा ! से जहानामए केइ पुरिसे रूपनालियं वा बूरनालियं वा तत्तणं करणं समविद्ध सेज्जा, एरिसेणं गोयमा ! मेहुणं सेवमाणस्स संजमे कज्जइ । भगवतीसूत्र श० २ उद्०५, सू० १०६ ) । इस के अतिरिक्त मैथुन के सम्बन्ध में श्री दरवैकालिक सूत्र में क्या ही सुन्दर लिखा है -
मूलमेयमहम्मस्स
महादोससमुस्सयं । तम्हा मेहुण संसग्गं, निरगंधा वज्जयन्ति रां ॥ श्र०६ / १७ ।
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