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श्री विपाक सूत्र
[दशम अध्याय
तथा फल भी बराबर होगा।
इस सूत्र में उन आत्माओं का वर्णन है जिन्हों ने भिन्न २ कर्म किये हैं, और उन का दण्ड भी भिन्न २ है. परन्तु स्यान अर्थात् संसार एक है। तभी तो यह वर्णन किया है कि संसारभ्रमण के अनन्तर कोई महिष बनता है, कोई मृग तथा कोई मोर और कोई हंस बनता है । इसी तरह मच्छ और शूकर आदि का भी उल्लेख है । तब र्याद दण्डगत भिन्नता न होती तो महिष आदि विभिन्न रूपों में उल्लेख कैसे किया जाता ?, इसलिये सूत्र में उल्लेख की गई संसारभ्रमण की समानता स्थानाश्रित है जोकि युक्तियुक्त और आगमसम्मत है । तात्पर्य यह है कि सूत्रकार के उक्त कथन से परिणामगत विभिन्नता को कोई क्षत नहीं पहुंचती।
अंजूश्री का जीव वनस्पतिकायगत कटु वृक्षों तथा कटुदुग्ध वाले अर्कादि पौधों में लाखों वार जन्म मरण करने के अनन्तर सर्वतोभद्र नगर में मोर के रूप में अवतरित होगा । वहां पर भी उसके दुष्कर्म उस का पीछा नहीं छोड़ेगे । वह शाकुनिकों-पक्षिघातकों के हाथों मृ यु को प्राप्त हो कर उसी नगर क एक धनी परिवार में उत्पन्न होगा। वहां युवावस्था को प्राप्त कर विकास-मार्ग की अोर प्रस्थित होता हुआ वह विशिष्ट संयमी मुनिराजों के सम्पर्क में आकर सम्यकत्व को उपलब्ध करेगा । अन्त में साधुवर्म में दीक्षित होकर कर्मबन्धनों के तोड़ने का प्रयास करेगा। जीवन के समाप्त होने पर वह सौधर्म नामक प्रथम देवलोक में देवस्वरूप से उत्पन्न होगा । वहां के दैविक सुखों का उपभोग करेगा। इतना कह कर भगवान् मौन हो गये । तब गौतम स्वामी ने फिर पूछा कि भगवन् ! देवभवसम्बन्धी आयु को पूर्ण कर अंजूश्री का जीव कहां जायगा? और कहां उत्पन्न होगा ?, इसके उत्तर में भगवान् बोले - गौतम ! महाविदेह क्षेत्र के एक कुलीन घर में वह जन्मेगा, वहां संयम की सम्यक अाराधना से कर्मों का आत्यंतिक क्षय करके सिद्धगति को प्राप्त होगा। तात्पर्य यह है कि यहां आकर उस की जीवनयात्रा का पर्यवसान हो जायगा।
सौधर्म देवलोक में अंजूश्री के जीव की उत्पत्ति बतला कर मौन हो जाने और गौतम स्वामी के दोबारा पूछने पर उस की अग्रिम यात्रा का वर्णन करने से यही बात फलित होती है कि स्वर्ग में गमन करने पर भी आत्मा की सांसारिक यात्रा समाप्त नहीं हो जाती । वहां से च्यव कर उसे कहीं अन्यत्र उत्पन्न होकर अपनी जीवनयात्रा को चालू रखना ही पड़ता है ।
अन्त में आर्य सुधर्मा स्वामी अपने प्रिय शिष्य जम्बू स्वामी से कहने लगे-जम्बू ! पतितपावन श्रमण भगवान महावीर स्वामी ने दाखविणक के अंजूश्री नामक दसवें अध्ययन का यह (पूर्वोक्त) अर्थ प्रतिपादन किया है। मैंने भगवान् से जैसा श्रवण किया है वैसा ही तुम को सुना दिया है। इस में मेरी निजी कल्पना कुछ नहीं ।
___ आर्य सुधर्मा स्वामी के उक्त वचनामृत का कर्णपुटों द्वारा सम्यक् पान कर संतृप्त हुए जम्बू स्वामी आर्य सुधर्मा स्वामी के पावन चरणों में सिर झुकाते हुए गद्गद् स्वर से कह उठते हैं - "सेवं भन्ते!, सेवं भन्ते !” अर्थात् भगवन् ! जो कुछ अापने फरमाया है, वह सत्य है, यथार्थ है ।
-णेयव्वं जाव वेणस्लति० - यहां का जाव-यावत् पद पृष्ठ ८९ में पढ़े गए-सा णं ततो अणंतरं उव्वहिता सरीसवेसु उववजिजहिति । तत्थ णं कालं किच्चा दोच्चाए पुढवीए -- से ले करतेएइंदिसु बेइन्दिएसु-यहां तक के पदों का. तथा - वणस्सति० - यहां का विन्दु - कडुयरुकबेसु कडुयदुद्धिएसु...अणेगसतसहसक्खुतो उववजिहिति-इन पदों का परिचायक है । तथा-उम्मुक्कबालभावे० - यहां का बिन्दु-जावणगमणुपत्ते विराणायपरिणयमेत्ते -इन पदों का परिचायक है । इन का अर्थ पृष्ठ ३२९ पर लिखा जा चुका है। तथा-पवज्जा । सोहम्मे-ये पद पृष्ठ ३१२ पर पढ़े गये
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