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दशम अध्याय ],
हिन्दी भाषा टीका सहित ।
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१५-लोकप्रद्योतकर-प्रद्योतकर सूर्य का नाम है। भगवान् महावीर लोक के सूर्य थे । अपने केवल ज्ञान के प्रकाश को विश्व में फैलाते थे और जनता के मिथ्यात्वरूप अन्धकार को नष्ट कर के उसे सन्मार्ग सुझाते थे । इस लिये भगवान् को लोकप्रद्योतकर कहा गया है।
१६-अभयदय-अभय -निर्भयता का दान देने वाले को अभयदय कहते हैं । भगवान् महावीर तीन लोक के अलौकिक एवं अनुपम दयालु थे । विरोधी से विरोधी के प्रति भी उनके हृदय में करुणा की धारा बहा करती थी। चण्डकोशिक जेसे भीषण विषधर की लपलपाती ज्वालाओं को भी करुणा के सागर वीर ने शांत कर डाला था। इस लिए उन्हें अभयदय कहा गया है।
१७-चक्षुर्दय-श्रांखों का देने वाला चतुर्दय कहलाता है । जब संसार के ज्ञानरूप नेत्रों के सामने अज्ञान का जाला जाता है, उसे सत्यासत्य का कुछ विवेक नहीं रहता, तब भगवान् संसार को ज्ञाननेत्र देते हैं, अज्ञान का जाला साफ करते हैं । इसी लिए भगवान् को चतर्दय कहा गया है।
१८-मार्गदय-मार्ग के देने वाले को मार्गदय कहते हैं । सम्यगज्ञान, सम्यगदर्शन और सम्यक चारित्ररूप रत्नत्रय मोक्ष का मार्ग है । भगवान् महावीर ने इस का वास्तविक स्वरूप संसार के सामने रखा था, अतएव उन को मार्गदय कहा गया है ।
१९-शरणदय-शरण त्राण को कहते हैं । अाने वाले तरह २ के कष्टों से रक्षा करने वाले को शरणदय कहा जाता है । भगवान् की शरण में आने पर किसी को किसी प्रकार का कष्ट नहीं रहने पाता था।
२०-जीवदय-संयम जीवन के देने वाले को जीवदय कहते हैं । भगवान् की पवित्र सेवा में आने वाले अनेकों ने संयम का अाराधन कर के परम साध्य निर्वाण पद को उपलब्ध किया था।
२१-बोधिदय-बोधि सम्यक्त्व को कहते हैं । सम्यक्त्व का देने वाला बोधिदय कहलाता है।
२२-धर्मदय-धर्म के दाता को धर्मदय कहते हैं । भगवान् महावीर ने अहिंसा, संयम तथा तपरूप धर्म का संसार को परम पावन अनुपम सन्देश दिया था ।
___२३-धर्मदेशक-धर्म का उपदेश देने पाले को धर्मदेशक कहते हैं । भगवान् श्रुतधर्म और चारित्रधर्म का वास्तविक मर्म बतलाते हैं, इसलिये उन्हें धर्मदेशक कहा गया है ।
२४-धर्मनायक-धर्म के नेता का नाम धर्मनायक है । भगवान् धर्ममूलक सदनुष्ठानों का तथा धर्मसेवी व्यक्तियों का नेतृत्व किया करते थे।
२५-धर्मसारथि-सारथि उसे कहते हैं जो रथ को निरुपद्रवरूप से चलाता हुआ उस की रक्षा करता. है, रथ में जुते हुए बैल आदि प्राणियों का संरक्षण करता है । भगवान् धर्मरूपी रथ के सारथि है। भगवान् धर्मरथ में बैठने वालों के सारथि बन कर उन्हें निरुपद्रव स्थान अर्थात् मोक्ष में पहुँचाते हैं।
२६-धर्मवर-चतुरन्त-चक्रवर्ती-पूर्व, पश्चिम और दक्षिण इन तीन दिशाओ में समुद्र - पर्यन्त और उत्तर दिशा में चूनहिमवन्त पर्वतपर्यन्त के भूमिभाग का जो अन्त करता है अर्थात् इतने विशाल भूखण्ड पर जो विजय प्राप्त करता है, इतने में जिस की अखण्ड और अप्रतिहत आज्ञा चलती है, उसे चतुरन्तचक्रवर्ती कहा जाता है । चक्रवर्तियों में प्रधान चक्रवर्ती को वरचतुरन्तचक्रवर्ती कहते हैं । धर्म के वरचतुरन्त चक्रवर्ती को धर्मवरचतुरन्तचक्रवर्ती कहा जाता है । भगवान् महावीर स्वामी नरक, तियंच, मनुष्य और देव इन चारों गतियों का अन्त कर संपूर्ण विश्व पर अपना अहिंसा और सत्य आदि का धर्मराज्य स्थापित करते हैं । अथवा-दान, शील, तप और भावरूप चतुर्विध धर्म की साधना स्वयं अन्तिम कोटि तक करते हैं और जनता को भी इस धर्म का उपदेश देते हैं अतः वे धर्म के वरचतुरन्तचक्रवर्ती कहलाते
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