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श्री विपाक सूत्र
[दशम अध्याय
तते णं से विजए राया कोडुचियपुरि से सदावेति २ त्ता एवं वयासी-गच्छह णं देवाणुपिया ! वद्ध मानपुरे नगरे सिंघा० जाव एवं वयह-एवं खलु देवाणुप्पिया! अंजूए देवीए जोणिसूले पाउब्भूते जो णं इच्छति वेज्जो वा ६ जाव उग्यासेति । तते णं ते बहवे वेज्जा वा ६ इमं एयारूवं उम्पोसणं सोचा निसम्म जेणेव विजए राया तेणेव उवागच्छन्ति अंतर देवीए बहूहि उप्पत्तियाहिं ४ बुद्धिहिं परिणामेमाणा इन्छंति अंजूए देवीए जोणिसूलं उत्सामित्तए, नो संचाएंति उत्सामित्राए । तते णं ते वहवे वेज्जा य ६ जाहे नो संचाएंति अंजूए देवीए जाणिसूलं उवसापितए, ताहे संता तंता परितंता जामेव दिसं पाउब्भृता तामेव दिसं पडिगता । तते णं सा अंजू देवी तीए वेयणाएं अभिभूया समाणी सुक्का भुक्खा निम्मंसा कट्ठाई कलुणाई वीसराइविलवति । एवं खलु गोयमा ! अंजू दवी पुरा जाव विहरति ।।
पदार्थ-तते णं-तदनन्तर । तीसे -उस । अञ्जए -अंजू । देवीर- देवी के । अन्नयाअन्यदा । कयाइ-कदाचित् । जोणिसूले - योनिशूल -योनि में होने वाली असह्य वेदना । पाउन्भूतेप्रादुर्भूत-उत्पन्न । यावि होत्या-हो गई थी। तते णं-तदनन्तर । से-वह । विजए - विजयमित्र । राया-राजा । कोडुबियपुरिसे-कौटुम्बिक पुरुषों-पास में रहने वाले अनुचरों को । सद्दावेति २ त्ताबुलाता है और बुलाकर । एवं वयालो-इस प्रकार कहने लगा । देवाणुपिया' !-हे भद्र पुरुषो!। गाहणं-तुम जाओ । वद्वमाणपुरे-वर्धमानपुर । णगरे-नगर के । सिंघा० -शृङ्गाटक-त्रिपथ । जव-यावत् सामान्य मार्गों में । एवं - इस प्रकार । वयह-कहो-उद्घोषणा करो । एवं खलु-इस प्रकार निश्चय ही । देवाणुप्पिया!-हे महानुभावो!। अंजए-अजू। देवीए-देवी के। जाणिसूले-योनिशूलरोगविशेष । पाउन्भूते-प्रादुर्भूत हो गया है -योनि में तीव्र वेदना उत्पन्न हो गई, तब । जो णं-जो कोई । वेज्जो वा ६-वैद्य या वैद्यपुत्र आदि । इच्छति-चाहता है । जाव - यावत् अर्थात् उपशान्त करने वाले को महाराज विजयमित्र पर्याप्त धनसम्पत्ति से सन्तुष्ट करेगा, इस प्रकार । उग्रोसेंति --उद्घोषणा णा करते हैं। तते णंतदनंतर (नगरस्थ) । ते-वे । बहवे-बहुत से । वेज्जा वा ६ -वैद्य आदि । इमं -यह । एयारूवं - इस प्रकार की। उग्घोसणं-उद्घोषणा को । सोच्चा -सुन कर । निसम्म- अर्थरूप से अवधारण कर । जेणेवजहां पर । विजए-विजयमित्र । गया-राजा था तेणेव-वहां पर । उवागच्छन्ति २ ता - आ जाते हैं, श्राकर । अज्जए -अंजू । देवीए -देवो के पास उपस्थित होते हैं, अोर । बहूहिं -विविध प्रकार से । उप्पति याहिं ४ - प्रोत्साति को अादि । बुद्धिहि-बुदियों के द्वारा । परिणाममाणा -परिणाम को प्राप्त कर अर्थात् ततस्ते बहवो वैद्या वा ६ इमामेतद्रपामुदघोषणां श्रुत्वा निशम्य यत्रैव विजयो राजा तत्रैवोपागच्छन्ति उपागत्य अंज्वा देव्या बहुभिः औत्पातिकीभि. ४ बुद्धिभिः परिणमयन्त इच्छन्ति, अंज्वा देव्या यो नशू नमुपशयितुम् । नो संशकनुवन्ति उपशमयितुम् । ततस्ते बहवो वैद्या : ६ यदा नो संशकनुवन्ति अज्या देव्या योनिशूलमुवशमयितुम् , तदा प्रान्ता: तान्ता: परितान्ताः यस्या एव दिशः प्रादुर्भूतास्तामेव दश प्रतिगताः । ततः सा अंजूदेवी तया वेदनया अभिभूता सती शुष्का बुभूझिता निनासा कष्टानि करुणानि विस्वराणि विलपति । एवं खलु गौतम ! अंजुर्देवी पुरा यावद् विहरति ।
(१) देवानुप्रिय शब्द का अर्थसम्बन्धी ऊहापोह पृष्ठ ६७ के टिप्पण में किया जा चुका है।
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