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५१२]
श्री विगक सूत्र -
[नवम अध्याय
समुदाय के साथ महाराज वैश्रमणदत्त के शव को बाहिर ले जा कर श्मशान पहुंचाता है । तदनन्तर अनेकों लौकिक मृतक सम्बन्धी कृत्य करता है । तदनन्तर राजा, ईश्वर, तलवर, माडम्बिक, कौटुम्बिक, इभ्य, श्रेष्ठी और सार्थवाह मिल कर पुष्यनन्द कुमार का महान समारोह के साथ राज्याभिषेक करते हैं। तब से पुष्यनन्दी कमार राजा बन गया।
शतपाक - के चार अर्थ होते हैं, जैसे कि - १) जिस में प्रक्षिप्त औषधियों का सौ वार पाक किया गया हो। (२) जो सौ औषधियों मे पका हुआ हो । (३) जिस तेन को सौ वार पकाया जाए । ४) अथवा जो सौ रुपये के मूल्य से पकाया जाता हो । इसी प्रकार सहस्त्रपाक के अर्थों की भावना कर लेनी चाहिये।
संवाहना-अंगमर्दन का नाम है । इस से चार प्रकार का शारीरिक लाभ होता है। इस के प्रयोग से अस्थि. मांस, त्वचा और रोमों को सुख प्राप्त होता है अर्थात् इन चारों का उपबृहण होता है । इसी लिये सूत्र - कार ने "- अहिसुहाए मंससुहाए, तयासुहाए, रामसुहाए-" यह उल्लेख किया है।
किसी २ प्रति में"- अद्वि चुहाए मं० ०या० चम्म० रोमसुहाए चउविहार संवाहणार --" ऐसा पाठ है, परन्तु यह पाठ ठीक प्रतीत नहीं होता । जब सूत्रकार स्वयं चार प्रकार की संवाहना कहते हैं तो फिर पांच प्रकार (अस्थि, मांस, त्वचा, चर्म, रोम की संवाहना कसे संभव हो सकती है। दूसरी बात - त्वच से ही चर्म का ग्रहण हो सकता है । अतः पाठ में चम्म-चर्म का अधिक अथच अनावश्यक सन्निवेश किया
गया है।
तथा " -गंधवटए-गंधवर्तकेन- " इस का अर्थ टीकाकार श्री अभयदेव सरि ने "गन्धचूर्णेन" अर्थात् गंधचूर्ण किया है, जिस का तात्पर्य सुगन्धित चूर्ण अर्थात् उवटना-बटना है।
-असणं ४---यहां के अंक से अभिमत पद पृष्ठ २५० पर लिखे जा चके हैं । तथा-राहार जाव पायच्छित्ताए जाव जिमियभुत्तु त्तरागयाए- यहां पठित प्रथम-जाव-यावत् पद से - कयवलि. कम्माए कयकोउयमंगल-इस पाठ का तथा द्वितीय जाव यावत् - पद से -सुद्धप्पवेसाई मंगलाई पवराई बत्थाई परिहियाए अपनहनाभरणालंकियलरीगर भायण वेलाए भोयणमंडवंसि सुहासणवरगयाए असणपाण वाइमसाइमं श्रासाएमाणाए विसाएमाणाए परिभुजेमाणाए परिभाएमाणाए -- इन पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है । कृतबलिकर्मादि पदों का अथ पृष्ठ १७६ तथा १७७ पर और सुद्धप्पवेसाइ- इत्यादि पदों का अर्थ पृष्ठ २२९ की टिप्पण में लिखा जा चका है । अन्तर मात्र इतना है कि वहां ये पद प्रथमान्त हैं जब कि प्रस्तुत में पञ्चम्यन्त । विभक्तिगत तथा लिंगगत भेद के अतिरिक्त अर्थ में कोई अन्तर नहीं।
प्रस्तुत सूत्र में राजकुमार पुष्यनन्दी का कुमारी देवदत्ता के स थ विवाह हो जाने के बाद मानवोचित सांसारिक मनोज्ञ विषयों का उपभोग करना, महाराज वैश्रमण को मृत्यु एवं रोहातकनरेश पुष्यनन्दी का मातृभक्त करना आदि विषयों का वर्णन किया गया है । अब सूत्रकार देवदत्ता के हृदय में होने वाली विचारधारा का वर्णन करते हैं -
(१) १-शतं पाकानाम् औषधिक्वाथानां पाके यस्य। २-ओषांधशतेन वा सह पच्यते यत् । ३-शतकृत्वो वा पाको यस्य । ४ -- शतेन वा रूप्यकाणां मूल्यतः पच्यते यत्तत् पाकशतम् । एवं सहस्रपाकमपि ।( स्थानांगसूत्र - स्थान ३, उद्दश १, सूत्र १३५, वृत्तिकारोऽभय देवमूरिः ) इस विषय में अधिक देखने के जिज्ञासु आयुर्वेदीय ग्रंथों के तेल पाकप्रकरणों को देख सकते हैं ।
(२) अस्थनां सुवहेतत्वात अस्थिलुखया, एवं मसलुखया, त्वकखया, रामसुखया संवा धनया-संवाहनया (अंगमर्दनेन वा विश्रामणया) संवादिता। । कल्पसूत्रकल्पलता वृत्तिः)
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