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नवम अध्याय ]
हिन्दी भाषा टीका सहित ।
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यह तो प्रायः अनुभव सिद्ध है कि विषयलोलुपी मानव को कर्तव्याकर्तव्य या उचितानुचित का कुल भी ध्यान नहीं होता । उम का एक मात्र ध्येय विषयवासना की पूर्ति होता है, फिर उसके लिये भले ही उसे बड़े से बड़ा अनर्थ भी क्यों न करना पड़े और भले ही उस का परिणाम उस के लिये विशेष हानकर एवं अहितकर निकले, किन्तु इसकी उसे पर्वाह नहीं होती, वह तो पापाचरण में ही तत्पर रहता है। रोहीतकनरेश पुष्यनन्दी की परमप्रिया देवदत्ता से पाठक सुपरिचित हैं । उस के रूपलावण्य और अनुपम सौन्दर्य ने ही उसे एक राजमहिषी बनने का अवसर दिया है । उस में जहां शरीरगत बाह्य सौन्दर्य का प्राधिक्य है वहां उसके अन्तरात्मा में विषयवातना को भी कमी नहीं । वह मानवोचित कामभोगों के उपभोग की लालसा को इतना अधिक बढाए हुए है कि महाराज पुधनन्दी का क्षणिक वियोग भी उसे असह्य हो उठता है । वह नहीं चाहती कि रोहीतकनरेश उस मे थोड़े समय के लिये भो पृथक हों । उसकी इसी तीव्र वासना ने ही उस से मातृवात जैसे बर्बर एवं जघन्य अनर्थ कराने के लिये सन्नद्ध किया, जिस का स्मरण करते ही मानवता कांप उठती है । पृथिवी तथा आकाश रो उठते हैं . पति की पूज्य माता को इस लिये प्राणरहित कर देना कि उसकी सेवा में लगे रहने से पतिसहवास से प्राप्त होने वाले श्रामोद -प्रमोद में विघ्न पड़ता है, कितना नृशंसतापूर्ण घृणित विचार है ।, वास्तव में यह सब कुछ मानवता को पतन करने वाली आत्मघातिनी कामवासना का ही दूषित परिणाम है । जो मानव इस पिशाचिनी कमवासना के चंगुल में नहीं फंसे या नहीं फंसते, वे ही वास्तव में मानव कहलाने के योग्य हैं, बानो के तो सब प्राय: पाशविक जीवन बिताने वाले केवल नाम के ही मानव हैं।
षियवासना की भूखी, विवेकशून्य देवदत्ता ने अपने प्राणवल्लभ की चाह में, जिस का कि विषय पूर्ति के अतिरिक्त कोई भी उद्देश्य नहीं था, उस की तीर्थसमान पूज्य माता का जिस विधि और जिस निर्दयता से प्राणान्त किया, उसक वर्णन मूलार्थ में आचुका है । इस पर से इतना समझने में कुछ भी कठिनता नहीं रहती कि ऐहिक स्वार्थ में अंधा हुआ २ मानव व्यक्ति भयानक से भयानक अनर्थ करने में भी संकोच नहीं करता
. -विरहियसर्याणसि - इस पद की व्याख्या अभय देवमूरि के शब्दों में-विरहिते विजनस्थाने शयनोयं विरहितशयनोयं तत्र- इस प्रकार है । अर्थात् सोने की वह शय्या, जहां पर दूसरा कोई भी मनुष्य नहीं है.-उस पर । -सहप्प जुत्ता-का अर्थ आजकल के मुहावरे के अनुसार-श्राराम मोना, होता है । वास्तव में इस प्रकार का प्रयोग निश्चिन्त अवस्था में आई हुई निद्रा के लिये होता है । -फुल्लकिंसुयसमाणं--का अर्थ है -- केसू के फूल के समान लाल । इस कथन से तपे हुए लोहदण्ड के अग्निस्वरूप में परिवर्तित हुए रूप का दिग्दर्शन कराना ही सूत्रकार को अभिमत है।
- अज्झस्थिते ५ यहां दिये ५ के अंक से अभिमत पाठ पृष्ठ १३३ पर लिखा जा चुका है । तथा मा. इभत्त समारणे जाव विरति -यहां के जाव-यावत पद से पृष्ठ ५०९ तथा ५१, पर पढे गये - कल्लाक. लिंज जेणेव सिरीदेवी तेणेव- से ले कर --भोगभोगाई भुजमाणे- यहां तक के पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है । तथा - अन्तराण य ३ - यहां दिये गये ३ के अंक से -छिदाणि य विरहाणि य-इन पदों का ग्रहण करना चाहिये । अन्तर आदि पदों का अर्थ पदार्थ में लिखा जा चुका है । तथा - गेयमाणीश्रो ३
- यहां दिये गये ३ प्रक से - कंदमाणीओ विलवमाणीओ- इन पदों का ग्रहण करना चाहिये हाय मां!, इस प्रकार कहकर करन करती हुई, कंदन -ऊंचे घर से रुदन करती हुई और मस्तक श्रादि पीट कर हमारा क्या होगा ?, ऐसा कहकर विलाप करतो हुई-इन अर्था के परिचायक रोयमाणीओ श्रादि शब्द हैं।
राजमाता श्रीदेवी की मृत्यु का समाचार देने वाली दासियों ने श्रीदेवी की मृत्यु को "-एवं खनु सामी! सिरीदेवी देवदत्तार देवीए अकाले चेव जीवियाओ ववरोविया (एवं खलु स्वामिन् ! श्रीदेवी देवदत्तया देव्या अकाले एव जीविताद् व्यपरोपिता)-" इन शब्दों द्वारा अभिव्यक्त किया है। इस कथन
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