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श्री विपाक सूत्र
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५०८ ]
[नवम अध्याय
ग्रहण - विवाह किया गया। विवाह हो जाने पर देवदत्ता के माता पिता और उन के साथ आने वाले उन के मित्रों, ज्ञातिजनों, निजकजनों, स्वजनों, सम्बन्धिजनों और परिजनों को भी भोजनादि से तथा अन्य वस्त्राभूषणादि मे सत्कृत कर के महाराज वैश्रमणदत्त ने सम्मानपूर्वक विदा किया । इस प्रकार कुमारी देवदत्ता और राजकुमार पुष्यनन्दी का विवाह हो जाने पर सेठ दत्त और महाराज वैश्रमण दोनों ही निश्चिन्त होगये । कन्या को सुसराल में ले जाकर विवाह करने की उस समय की प्रथा थी । दक्षिण प्रांत के किन्हीं देशों में आज भी इस प्रथा का कुछ रूपान्तर से प्रचलन सुनने में आता है। देशभेद और कालभेद से अनेक वभिन्न सामाजिक प्रथायें प्रचलित हैं इन में आशंका या आपत्ति को कोई स्थान नहीं ।
अग्निहोम में मन्त्रोच्चारणपूर्वक घृतादिमिश्रित सामग्री के प्रक्षेप को श्रग्निहोम कहते हैं । यह विवाहविधिका उपलक्षक है । भारतीय सभ्यता में श्रम को साक्षी रख कर पाणिग्रहण- - विवाह करने की र्यादा व्यापक थच चिरन्तन है।
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- मित्त- असण० ४ - यहां के अंक से वाणखाइमसाइमेणं - इस पाठ का ग्रहण करना चाहिये । तथा-1 नाति० श्रमंतेति यहां का बिन्दु नियगसयणसम्बन्धिपरिजणं - इस पाठ का परिचायक है । मित्र आदि पदों का अर्थ पृष्ठ १५० की टिप्पण में लिख दिया गया है। तथा राहाते जाव पायच्छित्त े - यहां के जाव यावत् पद से - कयवलिकम्मे, कयको उयमंगल - इस पाठ का ग्रहण करना चाहिये । कृतबलि कर्मा आदि पदों का अर्थ पृष्ठ १७६ तथा १७७ पर लिखा गया है। तथा - मित्तः सद्धिं - यहां का बिन्दु लाइ यिग सयण - सम्बन्धि - परिजणेणं - इस पाठ का बोधक है। तथा आसादेमाणे ४ - यहां के से अभिमत पाठ पृष्ठ २५० पर लिखा जा चुका है । तथा-- श्रायन्ते ३ - यहां के अंक से चोखे परमसुइभूए इन पदों का ग्रहण करना चाहिये । श्राचान्त आदि पदों का अर्थ पदार्थ में दे दिया गया है । - हायं जाव विभूसियसरीरं - यहां पठित जाव - यात्रत् पद से कयवलिकम्मं कयकोउयमंगलपायच्छत्त' सन्त्रालंकार - इन पदों का ग्रहण समझना चाहिये । कृतवलिकर्मा आदि पदों का अर्थ पृष्ठ १७६ तथा १७७ पर लिखा गया है । अन्तर मात्र इतना है वहां ये पद प्रथमान्त हैं जब कि प्रस्तुत में द्वितीयान्त । तथा-सव्वालंकार विभूसियसरीरं का अर्थ पदार्थ में किया जा चुका है ।
- सव्विदीप जाव नाइयरवेणं - यहां के जाव - यावत् पद से - सब्वजुईए सव्ववलेणं, सव्वसमुदपणं सव्वायरेणं सञ्वविभूईए सव्वविभूसार सव्वसंभमेणं सव्वपुष्कगन्धमललालंकारे सन्तु डियस दस रिगणारण महया इड्ढीप महया जुईए महया बलेण महया समुदयण महया वरतु. डियजमगमगप्पवाइएण संख पणव पडह - भेरि - भल्लरि - खरमुहि - हुडुक्क मुख्य - मुयंग - दुदुहि - घोस- इन पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को इष्ट है । इन का अर्थ निम्नोक्त हैसर्व प्रकार की आभरणादिगत युति - कान्ति से अथवा सब वस्तुओं के सम्मेलन से, सर्व सैन्य से, सर्वसमुदाय मे अर्थात् नागरिकों के समुदाय से सर्व प्रकार के आदर से अथवा औचित्यपूर्ण कार्यों के सम्पादन से, सर्व प्रकार की विभूति - सम्पत्ति से, सर्व प्रकार की शोभा में, सर्व प्रकार के संभ्रम - श्रानन्दजन्य उत्सुकता से, सर्व प्रकार के पुष्प, गन्ध गन्धयुक्त पदार्थ, माला एवं अलंकारों से और सर्व प्रकार के वादित्रों के मेल से जो शब्द उत्पन्न होता है, उस मिले हुए महान् शब्द से अर्थात् बाजों की गडगडाहट से तथा महती ऋद्धि
(१) प्रस्तुत में एक आशंका होती है कि जब ऋद्धि आदि के साथ पहले सर्व शब्द का संयोजन किया हुआ है, फिर उन के साथ महान् शब्द के संयोजन की क्या आवश्यकता थी १, इस का उत्तर टीकाकार श्री अभयदेव रि के शब्दों में- अल्पेष्वपि ऋद्धयादिषु सर्वशब्दप्रवृत्तिदृष्टा, अत श्राह - महता इड्ढीए- इस प्रकार
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