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४४८]
श्रो विपाक सूत्र
[ अष्टम अध्याय
क्रन्दन और विलाप करता हुआ । सहदत्तस्स-समुद्रदत्त का । णीहरणं-निस्सरण - अरथी का निष्कासन । करेति करता है तथा । लोइयाई-लौकिक । मयकिच्चाई-मृतकसम्बन्धी कृत्यों को । करेति -- करता है ।
मूलार्थ-- उस समय समुद्र दत्ता भार्या जानिद्र ता - मृतवत्मा थी, उस के बालक जन्म लेते ही मर जाया करते थे । गंगादत्ता की भान्ति विचार कर, पति से पूछ कर, मन्नत मान कर तथा दोहद की पूर्ति कर समुद्रदत्ता बालक को जन्म देती है। बालक के शौरिक यक्ष की मन्नत मानने से उपलब्ध होने के कारण माता पिता ने उस का शौरिकदत्त नाम रक्खा । तदनन्तर पांच धाय माराओं से परिगृहीत बाल्यावस्था को त्याग, विज्ञान की परिपक्व अवस्था से सम्पन्न हो वह युवावस्था को प्राप्त हुआ ।
तदनन्तर किसी अन्य समय समुद्रदत्त कालधर्म को प्राप्त हुआ, तब रुदन, आक्रन्दन और विलाप करते हुए शौरिकदत्त चालक ने अनक मित्रों, ज्ञातिजनों, स्वजनों, सम्बन्धिजनों एवं परिजनों के साथ समुद्रदत्त का निस्सरण किया-अरथी निकाली और दाहकम एवं अन्य लौकिक मृतकक्रियाएं की।.
टीका- चपलता करने वाला एक वानर चाहे अपनी उमंग -खुशी में लकड़ो के चीरे हुए फटों में लगाई गई कोली को बैंच लेता है, परन्तु उन्हीं फट्टों के बीच में जिस समय उस की पूछ या अण्डकोष भिच जाते हैं तो वह चीखें मारता और अपनी रक्षा का भरसक यत्न करता है, परन्तु अब सिवाय मरने के उस के लिये कोई चारा नहीं रहता । ठीक इसी तरह पापकर्मों के आचरण में आनन्द का अनुभव करने वाले व्यक्ति चाहे कितना भी प्रसन्न हो ल परन्तु कर्मफल के भोगते समय वे उसी तरह चिल्लाते हैं, जिस तरह चपलता के कारण कीली को निकालने वाला मूर्ख वानर अण्डकोषों के पिस जाने पर चिल्लाता है। सारांश यह है कि उपार्जित किया कर्म अपना फल अवश्य देता है। चाहे करने वाला कहीं भी चला जाय । श्रीद रसोइया राजा को प्रसन्न करने के लिये मच्छियों के शिकार करने और उन के मांसों को विविध प्रकार से तैयार करने तथा अपनी जिह्वा को आस्वादित करने के लिये जिस भयानक जीववध का अनुष्ठान किया करता था, उसी के फलस्वरूप उसे छठी नरक में उत्पन्न होना पड़ा । वहां पर उसे अपने कर्मानुरूप नरकजन्य भीषणातिभीषण वेदनाए भोगनी पड़ी।
भगवान महावीर स्वामी कहने लगे कि हे गौतम ! जिस समय श्रीद रसोइया छठी नरक में पड़ा हुआ स्वकृत अशुभ कमों के फल को भोग कर वहां की भवस्थिति को पूरा करने वाला ही था, उस समय इसी शौरिकपुर नगर के मत्स्यबन्धक-मच्छीमारों के मुहल्ले में रहने वाले समुद्रदत्त नामक मच्छीमार की भार्या जात. निद्रुता- मृतवत्सा थी, उस के बालक उत्पन्न होते ही मर जाया करते थे। अतएव वह अपनी गोद को खाली देख कर बड़ी दु:खी हो रही थी। उस की दशा उस किसान जैसी थी, जिस की खेती - फसल पक जाने पर ओलों की वर्षा से सर्वथा नष्ट भ्रष्ट हो जाती है । सन्ततिविरह से परम दुःखी हुई समुद्रदत्ता ने भी गगादत्ता
अव्यापारेषु व्यापार, यो नर: कतुमिच्छति।
स एव निधनं याति, कीलोत्पाटीव वानरः ॥ (पंचतंत्र) (२) गंगादत्ता का सारा जीवनवृत्तान्त दुःखविपाक के सप्तम अध्ययन में आ चुका है, वह भी जातनिद्रता थी, उसने भी रात्रि में अपने परिवार के सम्बन्ध में चिन्तन किया था, जिस में उसने पति से अाज्ञा ले कर उम्बरदत्त यक्ष के अाराधन का निश्चय किया था और तदनुसार उसने पति की आज्ञा ले कर उम्बरदत्त यक्ष की मन्नत मानी तथा गर्भस्थिति होने पर उत्पन्न दोहद की पूर्ति की। सारांश यह है कि जिस
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