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५०२]
श्री विपाक सूत्र
[नवम अध्याय
रोहीतकनरेश वैश्रमणदत्त ने जब से परमसन्दरी दत्त पुत्री देवदत्ता को देखा है तब से वे उसके अद्भुत रूप लावण्य पर बहुत ही मोहित से हो गये । उन की चित्तभित्ति पर कुमारी देवदत्ता की मूर्ति अमिट चित्र की भान्ति अंकित हो गई और वे इसी चिन्ता में निमग्न है कि किसी तरह से वह लड़की उसके राजभवन की लक्ष्मी बने। वे विचारते हैं कि यदि इस कन्या का सम्बन्ध अपने युवराज पुष्यनन्दी से हो जाए तो यह दोनों के अनुरूप अथच सोने पर सहागे जैसा काम होगा । प्रकृति ने जैसा सन्दर और संगठित शरीर पध्यनन्दी को दिया है वैसा ही अथवा उससे अधिक रूपलावण्य देवदत्ता को अर्पण किया है । तब दोनों की जोड़ी उत्तम ही नहीं किन्तु अनुपम होगी। जिस समय रूप लावण्य की अनुपम राशि देवदत्ता महार्ह वस्त्रा . भूषणों से सुसज्जित हो साक्षात् गृहलक्ष्मी की भान्ति युवराज पुष्यनन्दी के वाम भाग में बैठा हुई राजभवन की शोभाश्री का अद्भुत उद्योत करेगी तो वह समय मेरे लिये कितना अानन्दवर्धक और उत्साह भरा होगा ?, इस की कल्पना करना भी मेरे लिये अशक्य है ।
___ महाराज वैश्रमणदत्त के इन विचारों को यदि कुछ गम्भीरता से देखा जाय तो उन में पवित्रता और दीर्घदर्शिता दोनों का स्पष्ट आभास होता है। उन्होंने दत्त सेठ को पुत्री देवदत्ता को देखा ओर उस के अनुपम रूप लावण्य के अनुरूप अपने पुत्र को ठहराते हुए उस की युवराज पुष्यनन्दी के लिये याचना की है । इस से यह स्पष्ट सिद्ध होता है कि देवदत्ता के सौंदर्य का उन के मन पर कोई अनुचत प्रभाव नहीं पड़ा, तथा उन की मानसिक धारणा कितनी उज्जवल और मन पर उन का कितना अधिकार था ?, यह भी इस विचारसन्दोह से स्पष्ट प्रमाणित हो जाता है । महाराज वैश्रमणदत्त ने उसे हर प्रकार से प्राप्त करना चाहा परन्तु स्त्रीरूप में नहीं प्रत्युत पुत्रीसमान पुत्रवधू के रूप में । इस से महाराज के संयमित जीवन की जितनी भी प्रशंसा की जावे उतनी ही कम है।
इन विचारों के अनन्तर उन्होंने अपने अन्तरंग' परुषों को बुलाया और उन से दत्त सेठ के घर पर जा कर उस की पुत्री देवदत्ता को अपने राजकुमार पुष्यनन्दी के लिये मांगने को कहा। तदनुसार वे वहां गए और दत्त से उस की पुत्री देवदत्ता की याचना की । दत्त ने भी उसे सहर्ष स्वीकार करते हुए उन्हें सम्मान - पर्वक विदा किया, एव उन्हों ने वापिस आकर महाराज वैश्रमणदत को सारा वृत्तान्त कह सुनाया।
प्रस्तुत कथासंदर्भ से मुख्य दो बातों का पता चलता है, जो कि निम्नोक्त हैं -
१-प्राचीन काल में यह प्रथा थी कि जिस लड़की का सम्बन्ध जिस लड़के के साथ उचित जान पडता था, उसी के साथ करने के लिये लड़की के माता पिता से लड़की की याचना की जाती थी, जो कि अपवाद रूप न हो कर शिष्टजन सम्मत तथ। अनुमोदित थी।
२--उस समय ( जिस समय का यह कथासंदर्भ है ) कन्याओं के बदले कुछ शुल्क -उपहार लेने की प्रथा भी प्रचलित थी। महाराज वैश्रमण द्वारा भेजे गए अन्तरंग पुरुषों का दत के प्रति यह कहना कि कोजपहार दिलायें. इस बात का प्रबल प्रमाण है कि उस समय कन्याश्रो का किसी न किसी रूप में उपहार लेने को निन्द्य नहीं समझा जाता था । यदि उस समय यह प्रथा निन्द्य समझी जाती होती तो "दत्त" इस का जरूर निषेध करता। उसने तो इतना ही कहा कि मेरे लिये यही शुल्क काफी है जो महाराज मेरी कन्या को पत्रवधू बना रहे हैं । इस से स्पष्ट हो जाता है कि उस समय लड़की वाले को लड़के वालों की तरफ से
(१) अभ्यन्तर स्थान में रहने वाला पुरुष अभ्यन्तरस्थानीय कहा जाता है। अभ्यन्तरस्थानीय को अन्तरंग पुरुष भी कहा जाता है । अन्तरंग पुरुष दा तरह के होते हैं, सम्बन्धिजन और मित्रजन । दोनों का ग्रहण अभ्यन्तरस्थानीय शब्द से जानना चाहिये ।
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