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नवम अध्याय
हिन्दी भाषा टीका साहत।
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कर आपस में एक दूसरी को इस प्रकार कहने लगी कि महाराज सिंहसेन श्यामा देवी में अत्यन्त आसक्त हो कर हमारी कन्याओं का आदर, सत्कार नहीं करते, उन का ध्यान भी नहीं रखते, प्रत्युत उन का आदर न करते हुए और ध्यान न रखते हुए समय बिता रहे है। इस लिये अब हमारे लिये यही समुचित है कि अग्नि, विष तथ किसी शस्त्र के प्रयोग से श्यामा का अंत कर डालें। इस प्रकार उन्हों ने निश्चय कर लिया है और तदनुसार वे मरे अंतर, छिद्र और विरह की प्रतीक्षा करती हुई अवसर देख रही हैं । इसलिये न मालूम मुझे वे किस कुमौत से मारें, इस कारण भयभीत हुई मैं यहां पर आकर आर्तध्यान कर रही हूं । यह सुन महाराज सिंहसेन ने श्यामादेवी के प्रति जो कुछ कहा वह निम्नोक्त है
___प्रिये ! तुम इस प्रकार हतोत्साह हो कर प्रार्तध्यान मत करो, मैं ऐसा उपाय करूंगा जिस से तुम्हारे शरीर को कहीं से भी किसी प्रकार की बाधा तथा प्रबाधा नहीं होने पावेगी । इस प्रकार श्यामा देवी को इष्ट आदि वचनों द्वारा सोन्त्वना देकर महाराज सिंहसेन वहां से चले गये, जाकर उन्होंने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलागग, बुलाकर उन से कहने लगे कि तुम लोग यहां से जाओ और जाकर सुप्रतिष्ठित नगर से बाहिर एक बड़ी भारी कुटाकारशाला बनवाओ जो कि सैकड़ों स्तम्भों से युक्त और प्रासादीय, दर्शनीय, अभिरूप तथा प्रतिरूप हो अर्थात् देखने में निता-त सुन्दर हो । वे कौटुम्बिक पुरुष दोनों हाथ जोड़ सिर पर दस नखों वाली अंजलि रख कर इस राजाज्ञा को शिरोधार्य करते हुए चले जाते हैं, जा कर सुप्रतिष्ठित नगर की पश्चिम दिशा में एक महती और अनेकस्तम्भों वाली तथा प्रासादीय, दर्शनीय, अभिरून और प्रतिरूप अर्थात् अत्यन्त मनोहर कूटाकारशाला तैयार कराते हैं और तैयार कराकर उस की महाराज सिंहसेन को सूचना दे देते हैं।
टीका-महारानी श्यामा का ( ४९९ ) रानियों की माताओं के षड्यन्त्र से भयभीत होकर कोपभवन में प्रविष्ट होने का समाचार उस की दासियों के द्वारा जब महाराज सिहसेन को मिला तो वे बड़ी शीघ्रता से राजमहल की ओर प्रस्थित हुए, महलों में पहुंचे और कोपभवन में आकर उन्हों ने महारानी श्यामा को बड़ी ही चिन्ताजनक अवस्था में देखा। वह बड़ी सहमी हुई तथा अपने को असुरक्षित जान बड़ी व्याकुल सी हो रही है एवं उस के नेत्रों से अश्रुओं की धारा बह रही है । महाराज सिंहसेन को अपनी प्रेयसी श्यामा की यह दशा बड़ी अखरी, उस की इस करुणाजनक दशा में महाराज सिंह सेन के हृदय में बड़ी भारी हलचल मचा दो, वे बड़े अधीर हो उठे और श्यामा को सम्बोधित करते हुए बोले कि प्रिये ! तुम्हारी यह अवस्था क्यों ? तुम्हारे इस तरह से कोपभवन में आकर बैठने का क्या कारण है ! जल्दी कहो ? मुझ से तुम्हारी यह दशा देखी नहीं जाती, इत्यादि ।
पतिदेव के सान्त्वनागर्भित इन वचनों को सुन कर श्यामा के हृदय में कुछ ढाढस बंधी परन्तु फिर भी वह क्रोधयुक्त सर्पिणी की तरह फुकारा मारती हुई अथवा दूध के उफान की तरह बड़े रोष - पूर्ण स्वर में महाराज सिंह सेन को सम्बोधित करती हुई इस प्रकार बोली- स्वामिन् ! मैं क्या करू, मेरी शेष सपत्नियों (सौकनों) की माताओं ने एकत्रित होकर यह निर्णय किया है कि माहाराज श्यामा देवी पर अधिक अनुराग रखते हैं और हमारी पुत्रियों की तरफ़ ध्यान तक भो नहीं देते । इस का कारण एक मात्र श्यामा है, अगर वह न रहे तो हमारी पुत्रिय सुखी होजाएं । इस विचार से उन्हों ने मेरे को मार देने का षड्यन्त्र रचा है. वे रात दिन इसी ध्यान में रहती हैं कि उन्हें कोई उचित अवसर मिले और वे अपना कर्तव्य पालन करें। प्राणनाथ ! इस आगन्तुक भय से त्रास को प्राप्त हुई मैं यहां पर अाकर बैठी हूँ, पता नहीं कि
वसर मिलने पर वे मुझे किस प्रकार से मौत के घाट उतारें। इतना कह कर उस ने अपनी मृत्युभयजन्य आंतरिक वेदना को अश्रुकणों द्वारा सूचित करते हुए अपने मस्तक को महाराज के चरणों में रख कर
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