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४८८]
श्री विपाक सूत्र
[नवा अध्याय
मूकभाव से अभयदान की याचना की ।
महारानी श्यामा के इस मार्मिक कथन से महासज सिंहसेन बड़े प्रभावित हुए, उनके हृदय पर उस का बड़ा गहरा प्रभाव हुा । वे कुछ विचार में पड़ गये, परन्तु कुछ समय के बाद ही प्रेम और आदर के साथ श्यामा को सम्बोधित करते हुए बोले कि प्रिये ! तुम किसी प्रकार की चिन्ता मत करो। तुम्हारी रक्षा का सारा भार मेरे ऊपर है, मेरे रहते तुम को किसी प्रकार के अनिष्ट की शंका नहीं करनी चाहिये । तुम्हारी
ओर कोई आंख उठा कर नहीं देख सकता । इस लिये तुम अपने मन से भय की कल्पना तक को भी निकाल दो? इस प्रकार अपनी प्रेयसी श्यामा देवी को सान्त्वना भरे प्रेमालाप से ब्राश्वासन दे कर महाराज सिंह मेन वहां से चल कर बाहिर आते हैं तथा महारानी श्यामा के जीवन का अपहरण करने वाले षड्यन्त्र को तहस नहस करने के उद्देश्य से कौटुम्बिक पुरुषों को बुला कर एक विशाल कुटाकारशाला के निर्माण का आदेश देते हैं।
इस सूत्र म पात पत्नी के सम्बन्ध का सुचारु दिग्दशन कराया गया है । स्त्री अपने पति में कितना विश्वास रखती है तथा दुःख में कितना सहायक समझती है, और पति भी अपनी स्त्री के साथ कैसा रेममय व्यवहार करता है तथा किस तरह उस की संकटापन्न वचनावली को ध्यानपूर्वक सुनता है, एवं उसे मिटाने का किस तरह आश्वासन देता है, इत्यादि बातों की सूचना भली भान्ति निर्दिष्ट हुई है, जो कि आदर्श दम्पती के लिये बड़े मूल्य की वस्तु है । इस के अतिरिक्त इस विषय में इतना ध्यान अवश्य रखना चाहिये कि दम्पती. प्रेम यदि अपनी मर्यादा के भीतर रहता है तब तो वह गृहस्थजीवन के लिये बड़ा उपयोगी और सुखप्रद होता है और यदि वह मर्यादा की परिधि का उल्लंघन कर जाता है अर्थात् प्रेम न रह कर आसक्ति या मूर्छा का रूप धारण कर लेता है तो वह अधिक से अधिक अनिष्टकर प्रमाणित होता है । महाराज सिंह सेन यदि अपनी प्रेयसी इयामा में मर्यादित प्रेम रखते, तो उन से भविष्य में जो अनिष्ट सम्पन्न होने वाला है वह न होजा और अपनी शेष रानियों की उपेक्षा करने का भी उन्हें अनिष्ट अवसर प्राप्त न होता। सारांश यह है कि गृहस्थी मानव के लिये जहाँ अपनी धर्मपत्नी में मर्या देत प्रम रखना हितकर है, वहां उस पर अत्यन्त आसक्त होना उतना ही अहितकर होता है। दूसरे शब्दों में -जहां प्रेम मानव जीवन में उत्कर्ष का साधक है वहां आसक्ति - मूछ अनिष्ट का कारण बनती है।
--उप्फेण उप्फेणियं -4 उत्फेनोफे नितम् ) की व्याख्या वृत्तिकार "-सकोपोष्मव वनं यथा भवतीत्यर्थः-" इस प्रकार करते हैं । अर्थात् कोप क्रोध के साथ गरम २ बातें जैसे की जाती हैं उसी तरह वह करने लगी। तात्पर्य यह है कि उस के-श्यामा के कथन में क्रोध का अत्यधिक श्रावेश था।
श्राबाधा और प्रबाधा इन दोनों शब्दों की व्याख्या श्री अभयदेव सूरि के शब्दों में - तत्राबाधाईषत पीडा, प्रबाधा-प्रकृष्टा पीडैव इस प्रकार है । अर्थात् साधारण कष्ट बाधा है और महान् कष्ट - इस अर्थ का परिचायक प्रबाधा शब्द है । . -ओहयमणसंकप्पं जाव पासति-तथा-ओहयमणसंकप्पा जाव झिया से - यहां पठित जाव-यावत्-पद से - भूमिगयदिहियं, कातनपल् इत्यमुहि अज्माणोवगयं-ये अभिमत पद पीछे पृष्ठ ४८३ तथा ४८४ पर लिखे जा चुके हैं। अन्तर मात्र इतना है कि वहां वे पद प्रथमान्त दिये गये हैं, जब कि प्रस्तुत में द्वितीयान्त भी अपेक्षित हैं, अतः अर्थ में द्वितीयान्त को भावना भी कर लेनी चाहिये।
-भीया ४ जाव झियामि यहां दिये गए ४ के अंक से - तत्या उबिग्गा संजाय नया - इन पदों का ग्रहण करना चाहिये । इन का अर्थ पृष्ठ ४८० पर पदार्थ में लिखा जा चुका है। तथा-जाव-यावत् पद पृष्ठ ४८३ तथा ४८४ पर पढ़े गये-ओहयमणसंकप्पा-इत्यादि पदों का परिचायक है । तथा-ओहतमण
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