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नवम अध्याय1
हिन्दी भाषा टीका सहित।
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श्यामा के जीवन के अपहरण का उद्योग करने वाली वे ४९९ माताएं ही तो हैं और महाराज सिंहसेन का भी उन्हों पर रोष है। शेष रानियों का न तो कोई अपराध है और न हो उन्हें इस विषय में श्यामा ने दोषी ठहराया है। चौथी बात यहां पर "और" इस अथ का सूचक कोई चकारादि पद भी नहीं है। अतः हमारे विचारानुसार तो यहां पर 'एक कम पांच सौ देवियों की एक कम पांच सौ माताओं को निमंत्रण दिया' यही अर्थ युक्तियुक्त और समुचित प्रतीत होता है।
गंधोहि य नाडरहिय- गान्धर्वश्च नाटकैश्च) यहां प्रयुक्त गान्धर्व पद-गाने वाले व्यक्ति का बोधक है। नृत्य करने वाले पुरुष का नाम नाटक - नर्तक है । तात्पर्य यह है कि गान्धर्वां और नाटको से उन माताओं का यशोगान हो रहा था यह सब कुछ महाराज सिंहसेन ने उन के सम्मानार्थ तथा मनोविनोदार्थ ही प्रस्तुत किया था ताकि उन्हें महाराज के षडयंत्र का ज्ञान एवं भ्रम भी न होने पावे ।
इस प्रकार कुटाकारशाला में ठहरी हुई उन माताश्रो को निश्चिन्त और विश्रब्ध आमोद - अमोद में लगी हुई जान कर महाराज सिंहसेन अर्द्ध रात्रि के समय बहुत से पुरुषों को साथ लेकर कूटाकारशाला में पहुंचते हैं, वहां जाकर कुटाकारशाला के तमाम द्वार बंद करा देते हैं और उस के चारों तरफ से आग लगवा देते है । परिणामस्वरूप वे-माताए सब की सब वहीं जल कर राख हो जाती हैं। देवगति कितनी विचित्र है, जिस अग्निप्रयोग से वे श्यामा को भस्म करने की ठाने हुई थी उसी में स्वयं भस्मसात् हो गई ।
महाराज सिंहसेन ने महारानी श्यामा के वशीभूत होकर कितना घोर अनर्थ किया १. कितना बीभत्स आचरण किया ? उसका स्मरण करते ही हृदय कांप उठता है । इतनी बर्बरता तो हिंसक पशुओं में भी दृष्टिगोचर नहीं होती। एक कम पांच सौ राजमहिला प्रों को जीते जी अग्नि में जला देना और इस पर भी मन में किसी प्रकार का पश्चात्ताप न होना, प्रत्युत हर्ष से फूले न समाना, मानवता ही नहीं किन्तु दानवता की पराकाष्ठा है। परन्तु स्मरण रहे -कमबाद के न्यायालय में हर बात का पूरा २ भुगतान होता है, वहां किसी प्रकार का अन्धेर नहीं है । तभी तो सिंहसेन का जीव छठी नरक में उत्पन्न हुआ, अर्थात् उस को छठी नरक में नारकीयरूप से उत्पन्न होना पड़ा । विषयांध -विषयलोलुप जीव कितना अनर्थ करने पर उतारू हो जाते हैं १, इसके लिये सिंहसेन का उदाहरण पर्याप्त है । प्रस्तुत कथा से पाठकों को यह शिक्षा लेनी चाहिये कि विषयवासना से सदा दूर रहें, अन्यथा तज्जन्य भीषण कर्मों से नारकीय दुःखों का उपभोग करने के साथ २ जन्म मरण के प्रवाह से प्रवाहित भी होना पड़ेगा।
-असणं ४ -यहां दिये गये ४ के अक से अभिमत पाठ पृष्ठ २५० पर लिखा जा चुका है । तथा -तहेव जाव साहरांति यहां पठित तहेव पद का अर्थ है, वैसे ही अर्थात् जैसे महाराज सिंहसेन ने अशन, पानादि सामग्री को कुटाकारशाला में पहुंचाने का आदेश दिया था, वेसे राजपुरुषों ने सविनय उसको स्वीकार किया और शीघ्र ही उस का पालन किया, तथा इसी भाव का संसूचक जो आगम पाठ है उसे जाव-यावत् पद से अभिव्यक्त किया है, अर्थात् जाव-यावत् पद-पुरिसा करयलपरिग्गहियं दसणहं अंजलिं मत्थर क एयमढे पडिसुणेति पडिसुणिता विउलं असणं ४ सुबहुं पुष्फवत्थगंधमल्लालंकार व कूडागारसालं- इन पदों का परिचायक है । अर्थ स्पष्ट ही है ।
-पुरं च ६ - यहां ६ के अंक से अभिमत पाठ की सूचना पृष्ठ ४४७ पर की जा चुकी है, तथा -प्रासादेमाणाइ ४ – यहां ४ के अंक से-विसारमाणाई परिभाएमाणाई, परिभुजमाणाई-इन पदों का ग्रहण करना चाहिये । इन पदों का अर्थ पृष्ठ १४५ पर लिखा जा चुका है । अन्तर मात्र इतना है कि वहां ये शब्द स्त्रीलिङ्ग हैं जब कि प्रस्तुत में नपुंसक लिंग । अर्थगत कोई भेद नहीं है ।
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