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श्री विपाक सूत्र--
अध्याय
कौटुबिम्कपुरुषों को । सदावेति-बुलाता है । सदावित्ता-बुलाकर, उनके प्रति । एवं वयासी-इस प्रकार कहता है । देवाणुप्पिया!- हे भद्रपुरुषो!। एसा - यह । दारिया-बालिका । कस्स ण-किस की है। किं च नामधिज्जेणं- और (इस का) क्या नाम है ?। तते णं-तदनन्तर । ते- वे । कोडुबियाकौटुम्बिक पुरुष । वेसमणगय - महाराज दैश्रमणदत्त के प्रति । करतल०-दोनों हाथ जोड़। जाव-यावत्. मस्तक पर दस नखों वाली अज ले रख कर । एवं वयासी-इस प्रकार कहने लगे । सामो! हे स्वामिन् ! । एस णं-यह । दत्तस्त-दत्त सत्यवाहस्ल -सार्थवाह की । धूया -पुत्री, और । कर हसिरी प्रत्तया. कृष्णश्री की आत्मजा है, तथा । देवदत्ता - देवदत्ता । णाम-नाम की। दारिया -बालिका है, जो कि । रूवेण य-रूप से । जोवणेण य-यौवन से, और । लावराणे ण य- लावण्य से । उदिवट्ठा- उत्कृष्ट-उत्तम तथा । उक्किट्ठसरीरा-उत्कृष्ट शरीर वाली है ।
मूलार्थ-तदनन्तर वा सिंहसेन का जीव छठी नरक से निकन कर गेहीतक नगर में दत्त सार्थवाह की कृष्णश्री नामक भार्या के उदर में पुत्रीरूप से उत्पन्न हुआ। तब उस कृष्णश्री ने लगभग नव मास परिपूर्ण होने पर एक कन्या को जन्म दिया जो कि अत्यन्त कोमल हाथ, पैरों वालो यावत परम सुन्दरी थी। तत्पश्चात् उस कन्या के माता पिता ने बारहवें दिन बहुत सा अशनादिक तैयार कराया, यावत् मित्र, ज्ञाति आदि को निमंत्रित कर एवं मब के भोजनादि से निवृत्त हो लेने पर कन्या का नामकरण संस्कार करते हुए कहा कि हमारी इस कन्या का न म देवदत्ता रखा जाता है। तदनन्तर वह देवदत्ता पांच धाय माताओं के मंरक्षण में वृद्धि को प्राप्त होने लगी। तब वह देवत्ता बाल्यावस्था से मुक्त होकर यावत् यौवन, रूप और लावण्य से अत्यन्त उत्तम एवं उत्कृष्ट शरीर वाली होगई ।
. तदनन्तर वह देवदत्ता किसी दिन स्नान करके यावत् समस्त भूषणों से विभूषित हुई बहुत सी कुब्जा आदि दासियों के साथ अपने मकान के ऊपर झरोखे में सोने को गेंद के साथ खेल रही थी और इधर स्नानादि से निवृत्त यावत् विभूषित महाराज वैश्रमण घोड़े पर सवार हो कर अनेकों अनुचरों के साथ अश्वक्रीडा के लिये राजमहल से निकल सेठ दत्त के घर के पास से होकर जा रहे थे, तब यावत् जाते हुए वैश्रमण महाराज ने देवदत्ता कन्या को ऊपर सोने की गेंद के साथ खेलते हए देखा, देखकर कन्या के रूप, यौवन और लावण्य से विस्मित होकर राजपुरुषों को बुलाकर कहने लगे कि हे भद्रपुरुषो! यह कन्या किस की है १ तथा इस का नाम क्या है ? । तब राजपुरुष हाथ जाड़ कर थावत् इस प्रकार कहने लगे-स्वामिन् ! यह कन्या सेठ दत्त की पुत्री और कृष्णश्री सेठानी की अत्मजा है। नाम इस का देवदत्तो है और यह रूप, यौवन और लावण्य-कान्ति से उत्तम शरीर वाली है।
टीका- परम पूज्य तीर्थंकर भगवान् महावीर स्वामी बोले कि गौतम ! तत्पश्चात् २२ सागरोपम की उत्कृष्ट स्थिति वाले छठे नरक में अनेकानेक दुःसह कष्टों को भोग कर वहां की भवस्थिति पूरी हो जाने पर सुप्रतिष्ठ नगर का अधिपति सिंहसेन उस नरक से निकल कर सीधा ही इसी रोहीतक नगर में, नगर के लब्धप्रतिष्ठ सेठ दत्त के यहां सेठानी कृष्णश्री के उदर में लड़की के रूप में उत्पन्न हुआ। सेठानी कृष्णश्री गर्भस्थ जीव का
(१) महाराज सिंहसेन का लड़की के रूप में उत्पन्न होना अर्थात् पुरुष से स्त्री बनना, उसके छल कपट का ही परिचायक है तथा छल, कपट-माया से इस जीव को स्त्रीत्व - स्त्री भव की प्राप्ति होती है । इस प्रकृतिसिद्ध सिद्धान्त को प्रस्तुत प्रकरण में व्यावहारिक स्वरूप प्राप्त हुआ है।
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