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४८६]
श्री विपाक सूत्र
[नवम अध्याय
शस्त्र के प्रयोग से । जीवियानो ववरोवित्तर-जीवन से रहित कर देना । एवं संपेहेंति संहिता - इस प्रकार विचार करती हैं, विचार कर । ममं–मेरे । अंतराणि य छिहाणि य विहराणि य-अन्तर' छिद्र और विरह की । पडिजागरमाणोश्रो-प्रतीक्षा करती हुई । विहरंति-विहरण कर रही हैं । तंअतः।नणज्जति-मैं नहीं जानती हूं कि । सानी! हे स्वामिन् । ममं -मुझे। केणई -किस । कुमारेणं - कुमौत से । मारिस्संति-मारेंगी। ति कहु -ऐसा विचार कर । भोया ४-भीत, त्रस्त, उद्विग्न और सजातभय हुई । जाव- यावत् । झियामि -विचार कर रही हूं। तते णं-तदनन्तर । से - वह । सीइसेणे राया-सिंहसेन राजा । सामं देवि-श्यामा देवो के प्रति । एवं वयासी-इस प्रकार बोला । देवाणुप्पिए! - हे महाभागे ! । तुमं- तुम । मा णं-मत । ओइतमणसंकपा-अपहत मन वाली हो। जाव-यावत् । झियासि-विचार करो । अहं णं -- मैं। तहा- वैसे । जत्तिहामि - यत्न करूगा । जहा णं-जैसे । तव-तुम्हारे। सरीरस्स-शरीर को । कत्तो वि-कहीं से भी । श्रावाहे वा-आबाधा - ईषत् पीडा। पवाहे वा-प्रबाधा - विशेष पीडा । नास्थि - नहीं । भविस्सति-होगी । त्ति का इस प्रकार से अर्थात् ऐसे कह कर । ताहिं-उन । इटाहिं-इष्ट । जाव - यावत् वचनों के द्वारा उसे । समासासेति-सम्यक्तया आश्वासन देता है - शान्त करता है । ततो- तत्पश्चात् वहां से । पडिनिक्खमति-निकलता है । पडिनिक्वमित्ता-निकल कर । कोडु वियपुरिसे --कौटुम्बिक पुरुषों को । सदावेति सहावित्ता - बुलाता है, बुलाकर । एवं वयासी-इस प्रकार कहता है । देवाणुप्पिया !-हे भद्र पुरुषो ! । तुम्भे - तुम लोग । गच्छह गां-जात्रो, जाकर । सुपइस्स -सुप्रतिष्ठित । णगरस्स - नगर के । बहियाबाहिर । एगं. महं - एक बहुत बड़ी । कूडागारसालं-कूटाकारशाला-षड्यन्त्र करने के लिये बनाया जाने वाला घर । करेइ-तेयार कराओ. जिस में । अणेगखंभसयसंनिविट्ठ - सैकड़ों स्तम्भ-खम्भे हों
और जो। पासाइयं ४-प्रासादीय-मन को हर्षित करने वाली, दर्शनीय - बारम्बार देख लेने पर भी जिस से श्रांखें न थके, अभिरूप-जिसे एक बार देख लेने पर भी पुन: दर्शन की लालसा बनी रहे, तथा प्रतिरूप अर्थात् जिसे जब भी देखा जाए तब ही वहां नवीनता ही प्रतीत हो । एयमढें-इस आज्ञा का। पत्रपिणहप्रत्यर्पण करो अर्थात् बनवा कर मुझे सूचना दो । तते णं तदनन्तर । ते वे । कोडुबियपुरिसा- कौटुम्बिक पुरुष । करतल -दोनों हाथ जोड़ । जाव-यावत् अर्थात् मस्तक पर दस नखों वाली अंजलि रख कर । पडिसुति पडिसुणेत्ता - स्वीकार करते हैं, स्वीकार करके । सुपट्टियस्स -सुप्रतिष्ठित नगर के । बहियाबाहिर । पच्चत्थिम-पश्चिम । दिसीभागे-दिग्भाग में एगं एक। महं-महती - बड़ी विशाल । कूडागारसालं-कूटाकार शाला । करेंति तैयार कराते हैं. जो कि । अणेगखंभसयसंनिविट्ठ-सैंकड़ों खम्भों वाली और । पासाइयं ४ - प्रासादीय, दर्शनीय, अभिरूप तथा प्रतिरूप थी, तैयार करा कर । जेणेव - जहां पर । सीहसेणे- सिंहसेन । राया - राजा था । तेणेव - वहां पर । उवागच्छंति उवागच्छित्ताश्राते हैं, आकर । तामाणत्तियं-उस आज्ञा का। पच्चपिणंति- प्रत्यर्पण करते हैं अर्थात् आप की आज्ञानुसार कूटाकार शाला तैयार करा दी गई है, ऐसा निवेदन करते हैं ।
मूलार्थ - तदनन्तर वह सिंहसेन राजा इस वृत्तान्त को जान कर कोपभवन में जाकर श्यामादेवो से इस प्रकार बोला-हे महाभागे ! तुम इस प्रकार क्यां निराश और चिन्तित हो रही ? महाराज सिंहसन के इस कथन को सुन श्यामा देवी क्रोधयुक्त हो प्रबल वचनों से राजा के प्रति इस प्रकार कहने लगी-हे स्वामिन् ! मेरी एक कम पांव सौ सपलियों को एक कम पांच सौ माताएं इस वृत्तात को जान
(१) अन्तर आदि पदों की अर्थावगात के लिये देखो पृष्ठ ४८० का पदार्थ ।
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