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श्री विपाक सूत्र
[अष्टम अध्याय
मत्स्यों-मच्छों को पकड़ने के जालविशेषों से । जम्माहि य-बन्धनविशेषों से । तिसराहि य -त्रिसरा--मत्स्य बन्धनविशेषों से । भिसराहि य-मत्स्यों को पकड़ने के बन्धनविशेषों से । घिसराहि य-मत्स्यों को पकड़ने के जालविशेषों से । विसराहि य -मत्स्यों को पकड़ने के जाल विशेषों से । हिल्लिरीहि य-मत्स्यों को पकड़ने के जालविशेषों से, तथा । झिल्लिरीहि य - मत्स्यबन्धनविशेषों से । लल्लिरीहि य-मत्स्यों को पकड़ने के साधनविशेषों से, और । जालेहि य - सामान्य जालों से । गलेहि य--वडिशों- मत्स्यों को पकड़ने की कुडियों से । कुडपासे हि य-कूटपाशों से अर्थात् मत्स्यों को पकड़ने के पाशरूप बन्धनविशेषों से। वक्कबंधेहि य - वल्कत्वचा आदि के बन्धनों से । सुत्तबंधेहि य--सूत्र के बन्धनों से, और । वालबंधेहि य-वालों - केशों के बन्धनों से । बहवे- बहुत से । सराहमच्छे य - कोमल मत्स्यों को । जाव - यावत् । पडागा. तिपडागे य-पताकातिपताक, इस नाम के मत्स्यविशेषों को । गेहति गरि हत्ता-पकड़ते हैं, पकड़ कर । एगठिया उ-छोटी नौका प्रों को। भरति भरिता-भरते हैं, भर कर । कूलं-किनारे पर । गाहेति गाहित्ता-लाते हैं, लाकर, बाहिर की भूमि अर्थात् बाहिर के जलरहित स्थान पर मच्छवलर - मत्स्यों के ढेर । करति करित्ता- लगाते हैं, ढेर लगा कर, उन को सुखाने के लिये । प्राययंसि - धूप में । दलयंति - रख देते हैं । अन्ने य-और । से-उस के । बहवे-बहुत से । दिन्नभतिभत्तवेयणा-रुपया पैसा और धान्यादिरूप वेतन लेकर काम करने वाले । पुरिसा - पुरुष । आयवततोहिं-आतप-धूप में तपे हुए । सोल्लेहि य-शूलाप्रोत किए हुए, तथा । तजितेहि य - तले हुए, तथा । भजितेहि य-भर्जित - भूने हुए । मच्छेहि- मत्स्यमांसों के द्वारा अर्थात् धूप से तप्त -सूखे हुए मत्स्यों के मांसों को शूल द्वारा पकाते हैं, तेल द्वारा तलते हैं, तथा अंगारादि पर भनते हैं, तदनन्तर उन को । रायमग्गंसि-राजमार्ग में, रख कर बेचते हैं, इस तरह अपनी)। वित्ति-आजीविका । कप्पेमा. णा-करते हुए । विहरंति-समय बिता रहे हैं । अप्पणावि य णं-और स्वयं भी । से- वह । सोरिए-शौरिंकदत्त । बहूहिं-अनेकविध । सराहमच्छेहिं - इलक्ष्णमास्यों । जाव - यावत् । पडागातिपडागेहि य-पताकातिपताक नामक मत्स्यविशेषों के मांसों, जो कि । साल्लेहि य - शूलाप्रोत किए हुए हैं, तथा । तलितेहि य-तले हुए हैं । भन्जिएहि य-भुने हुए हैं, के साथ । सुरं च ६-छः प्रकार की सुराओं का । श्रासाएमाणे ४-आस्वादनादि करता हुआ । विहरांत-विहरण कर रहा हैसमय व्यतीत कर रहा है ।
मूलार्थ-किसी अन्य समय वह -शौरिकदत्त स्वयं ही मच्छीमारों के नेतृत्व को प्राप्त करके विहरण करने लगा। वह महा अधर्मी-पापी यावत् इस को प्रसन्न करना अत्यन्त कठिन था । इसने रुपया, पैसा और भोजनादि रूप वेतन लेकर काम करने वाले अनेक वेतनभोगो पुरुष रखे हुए थे, जो कि छोटो नौकाओं के द्वारा यमुना नदी में घूमते और बहुत से हृदगलन, हृदमलन, हनमर्दन, ह्रदमंथन, हृदवहन तथा हृदप्रवहन से एवं प्रपंचुल, प्रपंपुल, जम्भा, त्रिसरा भिसरा, घिसरा, द्विसरा, हिल्लिरि, झिल्लिरि, लल्लिरि, जाल, गल, कूट पाश, वस्क-बन्ध, सूत्रबन्ध और वालबन्ध इन साधनों के द्वारा अनेक जाति के सूक्ष्म अथवा कोमल मत्स्यों यावत् फ्ताकातिपताक नामक मत्स्यों को पकड़ते हैं और पकड़ कर उन से नौकायें भरते हैं, भर कर नदी के किनारे पर उन को लाते हैं, लाकर बाहिर एक स्थल पर ढेर लगा देते हैं, तत्पश्चात् उन को वहां धूप में सूखने के लिए धर देते हैं।
___ इसी प्रकार उस के अन्य रुपया पैसा और धान्यादि ले कर काम करने वाले वेतनभोगी पुरुष धूप से सूखे हुए उन मत्स्यों-मच्छों के मांसों को शूलाप्रोत कर पकाते, तलते
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