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अष्टम अध्याय ]
हिन्दी भाषा टीका सहित ।
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विपणं पयम डिसुर्खेति, पडिसुता सोरियपुरे रागरे सिंवाडग-तिय- चउक्क-चरमहापह - पहेसु महया महया सद्देणं “ एवं खलु देवाणुपिया ! सोरियस्स मच्छुकंटए गलर लग्गे, तं जो इच्छति वेज्जो वा ६ सोरियमच्छ्रियस्स मच्छुकटयं गताओ नीहरितर, तस्स एं सोरिए विलं अत्यसंपयाणं दलयति - " ति - इन पदों का परिचायक है। अर्थात् कौटुम्बिकपुरुष - नौकर शौरिकदत्त मच्छीमार की बात को विनयपूर्वक तथेति (ऐसा ही होगा ) ऐसा कह कर स्वीकार करते हैं, और शौरिकपुर के शृङ्गाटक त्रिक चतुष्क, चत्वर, महापथ और पथ इन रास्तों में बड़े ऊंचे शब्द से उद्घोषणा करते हैं कि हे भद्रपुरुत्रो ! शोरिकदत के गले में मत्स्यकंटक - मच्छी का कांटा लग गया है, जो वैद्य तथा वैद्यपुत्र आदि उस को निकाल देगा तो शौरिकदत्त उस को बहुत सा द्रव्य देगा
"बहुहिं उत्पत्तियाहिय ४ बुद्धिहिं" - यहां दिया गया चार का अंक वैनयिकी, कर्मजा और पारिणामिकी इन तीन अवशिष्ट बुद्धियों का परिचायक है । 'औत्पातिकी आदि पर्दो भावार्थ निम्नोक्त है -
१ - जो बुद्धि प्रथम बिना देखे बिना सुने और बिना जाने विषयों को उसी क्षण में विशुद्ध यथावस्थितरूप में ग्रहण करतो है, अर्थात् शास्त्राभ्यास और अनुभव आदि के बिना केवल उत्पात - जन्म से ही जो उत्पन्न होती है, उसे श्रौत्पातिकी बुद्धि कहते हैं । नटपुत्र रोहा मगधनरेश महाराज श्रेणिक के मन्त्री श्री अभयकुमार, मुगुलबादशाह अकबर के दीवान श्री वीरबल, महाकवि कालीदास आदि पूर्वपुरुष औत्पातिकी बुद्धि के ही धनी थे ।
२ - कठिन से कठिन समस्या को सुलझाने वाली, नीतिधर्म और अर्थशास्त्र के रहस्य को ग्रहण करने वाली, तथा लोकद्वय - इस लोक और परलोक में सुख का सम्पादन करने वाली बुद्धि का नाम वैनयिकी बुद्धि है ।
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३ – उपयोग से - एकाग्र मन से विध कार्यों के अभ्यास और चिन्तन से
कार्यों के परिणाम (फल) को देखने वाली, तथा अनेक विशाल फल देने वाली बुद्धि कर्मजा कहलाती है । ४ – अनुमान हेतु और दृष्टान्त से विषय को सिद्ध करने वाली तथा अवस्था के परिपाक से पुष्ट एवं आध्यात्मिक उन्नति और मोक्षरूप फल को देने वाली बुद्धि पारिणामिकी कही जाती है । तथा - वमणेहि - इत्यादि पदों की व्याख्या वृत्तिकार के शब्दों में निम्नोक्त है -
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१ - "मणेहि यति-वमनं स्वतः सम्भूतम् - " अर्थात् वमन शब्द से उस वमन का ग्रहण जानना चाहिए जो किसी उपचार से नहीं किन्तु स्वाभाविक आई है । वमन शब्द का अधिक अर्थ - सम्बन्धी ऊहापोह पृष्ठ ७१ पर किया जा चुका है । २ - "छड्डुले हि यत्ति - छर्दनं वचादिद्रव्य प्रयोगकृतम् - " अर्थात् छर्दन भी वमन का ही नाम है, किन्तु यह बच ( एक पौधा, जिस की जड़ दवा के काम आती है ) आदि आदि शब्द से मदनफल प्रभृति उल्टी लाने वाले द्रव्यों का ग्रहण है ) से कराई जाती है । ३ - " उवीलरोहि यत्ति - श्रवपीडनं - निष्पीडनम् -' अर्थात् प्रस्तुत में गले को दबाने का नाम अवपीडन है । ४- "कवलग्गाहेहि यत्ति -कवलाह: - करकापनोदाय स्थूलकवल यहणम्, मुत्रविमर्दनार्थं वा दंष्ट्राधः काष्ठखण्डदानम्अर्थात् कांटे को निकालने के लिए बड़े ग्रास का ग्रहण कराना, ताकि उसके संघर्ष से गले में का हुआ कांटा निकल जाए, अथवा – मुख की मालिश करने के लिए दाढ़ों के नीचे लकड़ी (१) उत्पत्तिया १ वेश्या २ कम्प्रया ३ परिणामिया ४ बुद्धी चउव्विहा वृत्ता पंचमा नोवलकभई ( नन्दीसूत्र २६) । इन चारों बुद्धियों के विस्तृत स्वरूप को जानने की अभिलाषा रखने वाले पाठक श्री नन्दीसूत्र की टीका देख सकते हैं ।
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