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नवम अध्याय]
हिन्दी भाषा टीका सहित।
[४७१
सामापामोक्खेहिं-- श्यामादेवीप्रमुख । पंचहिं देवीसतेहिं-पांच सौ देवियों के । सद्धि - साथ । उप्पिप्रासाद के ऊपर | जाव-यावत् , सानन्द । विहरति-समय बिताता है । तते - तदनन्तर । सेवह । महासेणे-महासेन । राया - राजा । अन्नया कयाइ-अन्यदा कदाचित् । कालधम्मुणा - कालधर्म से । संजुत्त-संयुक्त हुआ-मृत्यु को प्राप्त हो गया । नीहरणं०- राजा का निष्कासन आदि कार्य पूर्ववत् किया । राया जाते-फिर वह राजा बन गया । महया० - जो कि महाहिमवान्-हिमालय आदि पर्वतों के समान महान् था ।
मूलार्थ-हे गौतम ! उस काल और उस समय इसी जम्बूद्वीर नामक द्वीप के अन्तर्गत भारतवर्ष में सुप्रनिष्ठ नाम का एक ऋद्ध, स्तिमित तथा समृद्ध नगर था । वहां पर महाराज महासेन राज्य किया करते थे । उम के अन्तःपुर में धारिणाप्रमुख एक हजार देवियें-रानिये थीं । महाराज महासेन का पुत्र और महारानी धारिणी देवी का आत्मज सिंहसेन नामक 'राजकुमार था, जो कि अन्यून एव निर्दोष पांच इन्द्रियों से युक्त शरीर वाला तथा युवराज पद से अलंकृत था।
सिंहसेन गजकुमार के माता पिता ने किसी समय अत्यन्त विशाल पांच सौ प्रासादावतंसक --उत्तम महल बनवाए : नत्यश्व त् किसी अन्य समय उन्होंने सिंहसेन गजकमार का श्यामाप्रमुख पांच सौ सुन्दर राजकन्याओं के साथ विवाह कर दिया और पांच सौ प्रीतिदान-दहेज दिये । तदनन्तर राजकुमार सिंहसेन श्यामाप्रमुख उन पांच सौ राजकन्याओं के साथ प्रासादों में रमण करता हुआ सानन्द समय बिताने लगा ।
तत्पश्चात् किसी अन्य समय महाराज महासेन को मृत्यु हो गई । रुदन, आक्रदन और विलाप करते हुए रोज कुमार ने उसका निस्परण दि कार्य किया । तत्पश्चात् राजसिंहासन पर
आरूढ होकर वह हिमवान् आदि पर्वतों के समान महान् बन गया, अर्थात् राजपद से विभूषित हो हिमवन्त आदि पर्वतों के तुल्य शोभा को प्राप्त होने लगो। .टीका-शूली पर लटकाई जाने वाली एक महिला की करुणामयी अवस्था का वर्णन कर उस के पूर्वभव का जीवनवृत्तान्त सुनने के लिये नितान्त उत्सुक हुए गौतम गणधर को देख, परम कृपालु श्रमस भगवान् महावीर स्वामी बोले कि हे गौतम ! यह संसार कर्म क्षेत्र है, इस में मानव प्राणी नानाप्रकार के साधनों से कर्मों का संग्रह करता रहता है। उस में शुभ और अशुभ दोनों प्रकार के कर्म होते हैं । यह मानव प्राणी इस कर्मभूमी में जिस प्रकार का बीज वन करता है, उसी प्रकार का फल प्राप्त कर लेता है । तुम ने जो दृश्य देखा है वह भी दृष्ट व्यक्ति के पूर्वसंचन कर्मा के ही फल का एक प्रतीक है। जब तुम इस महिला के पूर्व भव का वृत्तान्त सुनोगे, तो तुम्हें अपने अपने आप ही कर्मफल की विचित्रता का बोध हो जायगा।
___ भगवान् फिर बोले -गौतम एक समय की बात है कि इसी २जम्बूद्वीप नामक द्वीप के अन्तर्गत (१) जं जारिसं पुत्वाकासि कम्म, तमेव श्रागच्छइ सम्पराए । एगन्तदुक्खं भवमन्जिणित्ता, वेयन्ति दुक्खी तमणन्तदुक्खं ॥ २३ ॥ (सूय० -- अ. ५, उ८०)
अर्थात् जिस जीव ने जैसा कर्म किया है, संसार में वही उस को प्राप्त होता है। जिस ने एकान्त द:खरूप नरकभव का कर्म किया है, वह अनन्त दुःखरूप उस नरक को प्राप्त करता है।
(२) तिर्यक लोग के असंख्यात द्वीप और समुद्रों के मध्य में स्थित और सब से छोटा, जम्बू नामक वृक्ष से उपलक्षित और मध्य में मेरुपर्वत से सुशोभित जम्बूद्वीप है । इस में भरत, ऐरावत और महाविदेह ये तीन कर्मभूमी और हैमवत, हैरण्यवत, हरिवर्ष, रम्यकवर्ष, देवकुरु और उत्तरकुरु ये छः अकर्मभूमि क्षेत्र हैं । इस की परिधि तीन लाख सोलह हजार दो सौ सताईस योजन, तीन कोस एक सौ अढ़ाई धनुष्य (चार हाथ का परिमाण) तथा साढे तेरह अंगुल से कुछ अधिक है।
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