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1ो विपाकासून
[अष्टम अन्याय
तुब्भे-तुम लोग । गच्छह -जाम्रो। सोरिग्रपुरे:-शौरिकपुर नामक ।णगरे-नगर में। सिघाडगत्रिकोण मागे । जाव-यावत् । पहेसु-सामान्य मांगों-रास्तों परं । महंया महया-महान् ऊंचे। सद्देणंशब्द से । 'उग्धोसेमाणी उग्धोसेमाणा-उद्घोषणा करते हुए, उद्योषणा करते हुए । एवं वयंह- इस प्रकार कहो । एवं खलु-- प्रकार : निश्चय ही । देवापुनिया! हे महानुभावों ! । सोरियस्त-शरिकदस के। गले-कएठ में । मन्छकंडए-मत्स्यकएटक-मच्छो का: कांया लग्गे-लग मश्रा है । तं-अतः । जो एं-जो। वेज्जी वा ६ -वैद्य या वैद्यपुत्रादि । 'सोरियाछियस्त-शोरिक नामक मात्स्यिक-मच्छीमार के। गलीओकण्ठ से । मच्छङदयं - मत्स्यकएटक को । नोहरित्तरनिकालने की । इच्छति- इच्छा रखता है अर्थात् जो कांटे को निकालना चाहता है, और जो निकाल देगा । सस्स +- उस को। सोरिए-शौरिक विउल-विपुल बहुत सी। प्रत्यसपय,णं-आर्थिक सम्पतिः। दलपति- देगा । तते णं-तदनन्तर । ते-वे । कोड बियपुस्सिा - कौटुम्बिकः पुरुष. । जाब-जामत अर्थात् उसकी आज्ञनुसार नगर में। उग्घोसति-उदघोषणा कर देते हैं । ततो-तदनन्तर । बहवे. बहुत से। वेज्जा य६-वैद्य और पंचपुत्रादि । इमं- यह । एयारूवं - इस प्रकार की । उग्धोसिज्ज - माण - उद्घोषित की जाने वाली । उग्घोसणं - उद्घोषणा की। निसामति निसोमित्ता- सुनते हैं, सुनकर । जेव- जहाँ । सोस्थिगिह-शौरिकदत्त का घर था, और । जेणेव-जहां पर सोरिए - शौरिका। मच्छंधे-मत्स्यबस्थ --पच्छीमार था। तेणेव वहां पर । उवागच्छनित उवागच्छिता, प्राजाते हैं, आकर। बहुहि.-बहुत सी । उत्पत्तियाहि य ४-औत्पातिकी बुद्धिविशेष अर्थात् बिना ही शास्त्राभ्यासादि के झेने वाली बुद्धि स्वभावसिद्ध प्रतिभा, श्रादि । बुद्धिहि - बुद्धियों से । परिणाममाणा-परिणमन को प्राप्त करते हुए अर्थात् सम्यक्तया निदान आदि को समझते हुए उन वैद्यों में । मणेहिय वमनों से तयो । छपहिय - छर्दनों से तथा + उवीलणेहि य-अवपीडन - दबाने: से. और । कलामाहेहि य - कझवनाहों से; तथा । सल्नुकरणेहि य - शल्योबरणों से एवं । विसल्ल करणेहि: य-विशल्यकरणों से । सोरियमच्छंघस्स-शौरिक मत्स्यबन्ध के । मलाओ.-कंठ में से । मच्छकंटगं- मस्स्यकण्टक-मच्छी के कांटे को । नोहरितए,-निकालने की । इच्छंति-इच्छा करते है, अर्थात उक्त उपायों से गले में फंसे हुए, कांटे को निकालने का उद्योग करते हैं, परन्त वे..। नो चेव णं-नहीं । संचाएं ति–समर्थ हुए । नरहरित्तए वा-कांटा निकालने को । विसोहित्तर वा - तथा पूर आदि के हरण को, अर्थात् उन के उक्त उपचारों से न तो उस के गले का काएटा ही निकला और ना उस के मुख से निकलता हुआ पूग-पीब तथा रुधिर ही बन्द हुआ। तते णं-तदनन्तर । ते-वे । बहवे - बहुत से । वेज्जा य६-वैद्य तथा वैद्यपुत्रादि । जाहे - जब । सोरियस्त -शौरिक के । गलामो - कण्ठ से। मच्छकंटंग- मत्स्यकण्टक : को । नीहरित्तर या निकालने और । विलोहित्तर-पूयादि के दूर करने में। नो संचाएपंति-समर्थ नहीं हुए । ताहे तब (वे) । संप्ता ३-श्रान्त, तान्त और परितान्त हुए अर्थात् हितोत्साह होकर । जामेव दिसं - जिस दिशा से । पाउनभूता-पाये थे। तामेव दिसंउसी दिशा को । पडिगता-लौट गये -चले गये। तते गं-तदनन्तर । से-वह । सोरिए-- शौरिक । मच्छंधे-मत्स्यबन्ध । वेज्जपडियारनिविणणे. वैद्यों के प्रतिकार +इलाज से मिराश हुआ/तेणंउस । महया-महान् । दुक्खेणं-दुःख से । अभिभूते-अभिभूत -युक्त हुआ। सुक्खे -शुष्क हो कर: । जाव- यावत् । विहरति-विहरण करता है अर्थात् दुःखपूर्वक जीवन व्यतीत कर रहा है । एवं खलु:इस प्रकार निश्चय हो। गोतमा ! -हे गौतम ! । सोरिए-शौरिकः । पुरा-पूर्वकृत । पोराखावं. पुरातन । जाव-यावत् अर्थात् पाप कर्मों का फल भोगता हुा । विहरति-विहरण कर रहा है
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