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प्रकार गंगादत्ता ने अर्द्धरात्रि में कुटुम्बसम्बन्धी चिन्तन किया था, तथा उस
ने
सम्बन्धी चिन्तन के
किया। उसी प्रकार समुद्रदत्ता ने भी रात्रि में परिवार 'शौरिक यक्ष की मनौति मामने का संकल्प किया ।
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अष्टम अध्याय ]
हिन्दी भाषा टीका सहित ।
की भान्ति रात्रि में परिवारसम्बन्धी विचारणा के अनन्तर अपने पति से आज्ञा ले कर शौरिक नामक युव की सेवा में उपस्थित हो पुत्रप्राप्ति के लिए याचना की, और उसकी मन्नत मानी । तदनन्तर समुद्रदत्ता को भी यथासमय गर्भ रहने पर गंगादत्ता के समान दोहद उत्पन्न हुआ और उस की, गंगादत्ता के दोहद की तरह ही पूर्ति की गई । लगभग सवा नौं मास पूरे होने पर समुद्रदत्ता ने एक सुन्दर बालक को जन्म दिया । बालक के जन्म से सारे परिवार में हर्ष मनाया गया और कुलमर्यादा के अनुसार जन्मोत्सव मनाया तथा बारहवें दिन बालक का नामकरण संस्कार किया गया । शौरिक नामक यक्ष की मन्नत मानने से प्राप्त होने के कारण माता पिता ने अपने उत्पन्न शिशु का नाम शौरिकदत्त रक्खा । शौरिकदत्त बालक का, - १ - गोद में रखते वाली, २- कीड़ा कराने वाली, ३ - दुग्धपान कराने वाली, ४- स्नानादिक क्रियायें कराने वाली और ५- अलंकारादि से शरीर को सजाने वाली, इन पांच धायमाताओं के द्वारा पालन पोषण आरम्भ हुआ । वह उनकी देख रेख में शुक्लपक्षीय शशिकला की भान्ति बढ़ने लगा । विज्ञान की परिपक्व अवस्था तथा युवावस्था को प्राप्त होता हुआ वह सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करने लगा 1 समय की गति बड़ी विचित्र है, इस के प्रभाव में कोई भी बाधा नहीं डाल सकता । मनुष्य थोड़ी सी आयु लेकर चाहे समय के वेगपूर्वक चलन को स्मृति से ओझल कर दे, किन्तु समय एक चुस्त, चालाक और सावधान प्रतिहारी की भांति अपने काम करने में सदा जागरूक रहता है, तथा प्रत्येक पदार्थ पर अपना प्रभाव दिखाता रहता है । तद्नुसार समुद्रदत्त भी एकदिन समय के चक्र की लपेट में आ जाता है और अचानक मृत्यु की गोद में सो जाता है । पिता की अचानक मृत्यु से शौरिकदृ को बड़ा खेद हुआ, उस के सारे सांसारिक सुख पर पानी फिर गया । पिता के जोते जी जिवनी स्वतन्त्रता उसे प्राप्त थी, वह सारी की सारी जाती रही और विपरीत इस के उस पर अनेक प्रकार के उत्तरदायित्व का बोझ आ पड़ा, जोकि उस के लिये सर्वथा असह्य था । पिता की मृत्यु से उद्विग्न हुए शौरिकदत्त ने मित्र ज्ञाति आदि के सहयोग से पिता का और्द्धदेहिक संस्कार करने के साथ २ विधिपूर्वक मृतक - सम्बन्धी कियाओं का सम्पादन कर के अपने पुत्रजनोचित कर्तव्य का पालन किया ।
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- जायनिदुया - शब्द के अनेकों रूप उपलब्ध होते हैं। प्राकृतशब्दमहार्णव नामक कोष में- जायनिदुया - यह शब्द मान कर उस का संस्कृत प्रतिरूप “ – जातनिदुता- ऐसा दे कर साथ में उसका मृतवत्सा, ऐसा अर्थ लिखा है। अर्धमागधी कोष में “ - जायनिंद्र या जातनिद्रता - "ऐसा मानकर उस का "जिस के जन्म पाए हुए बालक तुरन्त मर जाते हैं अथवा मृतक पैदा होते हैं वह माता” ऐसा अर्थ लिखा है। टीकाकार श्री अभयदेवसूरि - जायणिदुया - ऐसा रूप मान कर इस की" - जातानि उत्पन्नानि अपत्यानि निद्रु तानि - निर्यातानि मुतानीत्यर्थो यस्याः सा जातनिर्द्धता – ” ऐसी व्याख्या करते हैं । अर्थात् जिस को सन्तति उत्पन्न होते ही मृत्यु को प्राप्त हो जाए उसे जातनिङ्गुता कहते हैं । श्रभिधानराजेन्द्रकोषकार जाय निर्धुया की अपेक्षा मात्र हिन्दू - ऐसा ही मानते हैं और इस की “ – मृतप्रजायां स्त्रियाम्, निन्दू महेला यह यदपत्यं प्रसूयते तत्तन्त्रियते, एवं यः श्राचार्यों यं यं प्रवाजयति स स म्रियतेऽपगच्छति वा ततः स निन्दुरिव निन्दुः - " ऐसी व्याख्या करते हैं । अर्थात् - निन्दू शब्द के १ - जिस स्त्री की उत्पन्न हुई प्रत्येक 1 सन्तान मर जाए वह स्त्री अथवा - २ - वह आचार्य जिस का प्रत्येक प्रब्रजित शिष्य या तो मर जाता. या निकल जाता है – संयम छोड़ जाता है, वह ऐसे दो अर्थ करतें हैं । तथा 'शब्दार्थचिन्तामणि
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उम्बरदत्त यक्ष का श्राराधन अनन्तर पति से आशा ले कर