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अष्टम अध्याय ]
हिन्दी भाषा टीका सहित ।
जलचर । थ जयर
तेसिं च-उन । बहूहिं अनेक । जाब - यावत् । जलयर स्थलचर / खहयर - खेचर जीवों के । मंसेहिं -मांसों से । रसेहि य-तथा रसों से । हरियसागेहि य-तथ हरे शाकों से, जो कि । सोल्लेहि य-शूलाप्रोत कर पकाए गए हैं। तलिएहि य-तैलादि में तले हुए हैं। भज्जिरहिय - अग्नि आदि पर भूने हुए हैं, के साथ । सुरं च ६ - छ: प्रकार की सुराश्र - मदिराओं का ।
सापमाणे ४ -- आस्वादनादि करता हुआ । विहरति - समय व्यतीत कर रहा था । तते गं - तदनन्तर । से- वह । सिरिए - श्रीद | महारासिए - महानसिक । एयकम्मे ४ - एतत्कर्मा, १ एतत्प्रधान, एतद्वि और एतत्समाचार | सुबहु - अत्यधिक । पावकम्मं - पापकर्म का । समज्जिणिता उपार्जन कर के । तेत्तीसं वाससयाई - तेतीस सौ वर्ष की । परमाउं - परम आयु । पालइत्ता - पाल कर - भोग कर । कालमासे - - कालमास में । कालं किच्चा - काल करके । छुट्टीए - छठी | पुढवीप - पृथिवी -: - नरक में । उवबन्ने - उत्पन्न हुआ |
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मूलार्थ - हे गौतम! उस काल और उस समय इसी जंम्बूद्वीप नामक द्वीप के अन्तर्गत भारतवर्ष में नन्दिपुर नाम का एक प्रसिद्ध नगर था। वहां के राजा का नाम मित्र था । उल का श्री नाम का एक महान् अधर्मी यावत् दुष्प्रत्यानन्द - कठिनाई से प्रसन्न किया जा सकने वाला, एक महानसिक- रसोइया था, उस के रुपया पैसा और धान्यादि रूप में वेतन ग्रहण करने वाले अनेक मात्स्यिक, वागुरिक और शाकुनिक नौकर पुरुष थे जो कि प्रतििदन श्लक्ष्णमत्स्यों यावत् पताकातिपताकमत्स्यों तथा अजों यावत् माहेषों एवं तित्तिरों यावत् मयूरों आदि प्राणियों को मार कर श्राद महानसिक को कर देते थे । तथा उस के वहां पिंजरों में अनेक तित्तिर यावत् मयूर आदि पक्षी बन्द किये हुए रहते थे श्रीदरसोइए के अन्य अनेक रूपण, पैसा और धान्यादि के रूप में वेतन लेकर काम करने वाले पुरुष जीते हुए तित्तिर यावत् मयूर आदि पक्षियों को पक्षरहित करके उसे लाकर देते थे । तदनन्तर वह श्री नामक महानसिक- रसोइया अनेक जलचर और स्थलचर आदि जीवों के मांस को लेकर छुरी से उन के सूक्ष्मखण्ड, वृत्तखण्ड, दीर्घखण्ड और ह्रस्वखण्ड, इस प्रकार के अनेकविध खण्ड किया करता था । उन खण्डों में से कई एक को हिम - बर्फ में पकाता था, कई एक को अलग रख देता जिस से वे खण्ड स्वतः ही पक जाते थे, कई एक को धूप से एवं कई एक को हवा के द्वारा पकाता था; कई एक को कृष्ण वर्ण वाले एवं कई एक को हिंगुल के वर्ण वाले किया करता था । तथा वह उन खंडों को तक्र - संस्कारित आमलकरसभावित, मृद्वीका दाख, कपित्थ-कैथ और दाडिम अनार के रमों से तथा मत्स्यरसों से भावित किया करता था । तदनन्तर उन मांसग्वण्डों में से कई एक को तेल से तलता, क एक को भाग पर भूनता तथा कई एक को शूला से पकाता था ।
इसी प्रकार मत्स्यमांसों के रसों को, मृगमांसों के रसों को, तित्तिरमांसों के रसों को यावत् मयूर - मांसों के रसों को तथा ओर बहुत से हरे शाकों को तैयार करता था, तैयार करके महाराज मित्र के भोजनमंडप में ले जा कर महाराज मित्र को प्रस्तुत किया करता, तथा स्वयं भी वह श्रीद महानसिक उन पूर्वोक्त श्लक्ष्णमस्त्य आदि समस्त जीवों के मांसों, रसों, हरितशाकों जोकि शूलपक हैं, तले हुए हैं, भूने हुए हैं, के साथ छः प्रकार की सुरा आदि मदिराओं का आस्वादनादि करता हुआ समय व्यतीत कर रहा था। तदनन्तर इन्हीं कर्मों को करने वाला, इन्हीं कर्मों में प्रधानता रखने वाला, इन्हीं को विद्याविज्ञान रखने वाला तथा इन्हीं पापकर्मों को अपना सर्वोत्तम आचरण मानने वाला वह श्री रसोइया अत्यधिक पापक का उपार्जन कर ३३ सौ वर्ष की परमायु को पाल कर कालमास में काल करके
(१) एतत्कर्मा, एतत्प्रधान - आदि पदों का अर्थ पृष्ठ १७९ की टिप्पण में लिखा जा चुका है ।
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