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अष्टम अध्याय ]
हिन्दी भाषा टीका सहित ।
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से बना है । प्रथम शर और दूसरा श्राव । शर शरारत, शैतानी तथा धूर्त्तता का नाम है। श्राब पानी को कहते हैं । अर्थात् जो पानी पीने वाले को इन्सान न रहने दे, उसे शैतान बना दे, धूर्तता के गढ़े में गिरा डाले, मां और बहिन की अन्तरमूलक बुद्धि के उच्छेद कर डाले, हानि और लाभ के विवेक से शून्य कर दे तथा हृदय में पाशविकता का संचार कर दे, उसे शराब कहते हैं। शराब शब्द की इस अर्थविचारणा से यह स्पष्ट हो जाता है कि जीवन के निर्माण एवं कल्याण के अभिलाषी मानव को शराब से कितना दूर एवं विरत रहना चाहिये १, इस के अतिरिक्त मदिरा के निषेधक अनेकानेक शास्त्रीय प्रवचन भी उपलब्ध होते हैं ।
उत्तराध्ययन सूत्र के १९ वें अध्ययन में लिखा है कि राजकुमार मृगापुत्र अपने माता पिता को दिगपान का परलोक में जो कटु फल भोगना पड़ता है, उस का दिग्दर्शन कराते हुए कहते हैं कि पूज्य माता पिता जी ! स्वोपार्जित अशुभ कर्मों का फल भोगने लिये जब मैं नरक में उत्पन्न हुआ, तब मुझे यमपुरुषों ने कहा कि यदुष्ट ! तुझे मनुष्यलोक में मंदिरा- शराब से बहुत प्रेम था जिस से तू नाना प्रकार की मदिराओं का बड़े चाव के साथ सेवन किया करता था । ले फिर अब हम भी तुझे तेरी प्यारी मदिरा का पान कराते हैं । ऐसा कह कर उन यमपुरुषों ने मुझ को अग्नि के समान जलती हुई बसा - चर्बी और रुधिर - खून का जबर्दस्ती पान कराया। वह भी एक बार नहीं किन्तु अनेकों बार । यमपुरुषों के उस दुःखद एवं बर्बर दण्ड जब मैं स्मरण करता हूँ तो मेरा मानस काम्प उठता है और इसी लिये मैंने यह निश्चय किया है. कि कभी भी मदिरा का सेवन नहीं करूंगा तथा ऐसे अन्य सभी आपातरमणीय सांसारिक विषयों को छोड कर सर्वथा सुखरूप संयम का श्राराधन करू ंगा ।
दशलिक सूत्र के पंचम अध्ययन के द्वितीयोद्द ेश में मदिरापान का खण्डनमूलक बड़ा सुन्दर वर्णन मिलता है। वहां लिखा है कि आत्मसंयमी साधु संयमरूप विमलयश की रक्षा करता हुआ जिस के त्याग में सर्वज्ञ भगवान् साक्षी हैं, ऐसे "सुरा मेरक आदि सब प्रकार के मादक द्रव्यों का सेवन ( पान ) न करें । सुरं वा मेरगं वा वि, अन्नं वा मज्जगं रसं । ससम्वं न पिवे भिक्खू, जसं सारकमपणो ||३८|| कहते हैं कि हे शिष्यो ! जो साधु धर्म से विमुख हो कर एकान्त स्थान में छिप कर मद्यपान करता है और समझता है कि मुझे यहां छिपे हुए को कोई नहीं देखता है, वह भगवान की आज्ञा का लोप होने से पक्का चोर है । उस मायाचारी के प्रत्यक्ष दोषों को तुम स्वयं देखो और अदृष्ट – मायारूप दोषों को मेरे से श्रवण करो
पियए एग श्रोतेो, न मे कोई विवाणइ । तस्स पस्लह दोसाई, मदिरासेवी साधु के लोलुपता, छल कपट, झूठ, अपयश और
नियडिं च सुरोह मे ॥३९॥ तृप्ति आदि दोष बढ़ते जाते
हैं, अर्थात् उस की निरन्तर असाधुता ही असाधुता बढ़ती रहती है, उस में साधुता का तो नाम भी नहीं रहता ।
वड्ढइ सुडिया तस्स, मायामोसं च भिक्खुणो । यसो निव्वाणं, सययं च साहुआ ||४०|| मदिरासेवी दुबुद्धि साधु अपने किए हुए दुष्ट कर्मों के कारण चोर के समान सदा उद्विग्न
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अशान्तचित्त रहता है, वह अन्तिम समय पर भी संवर चारित्र की आराधना
नहीं कर सकता । राहेइ संवरं ॥ ४१ ॥
निविग्गो जहा तेणा, अतकम्मेहिं दुम्मई । तारिलो मरणंते वि, न
विचारमूढ़ मद्यप ( मदिरा पीने वाला) साधु से न तो आचार्यों की आराधना हो सकती है और नाहीं साधुओं की । ऐसे साधु की तो गृहस्थ भी निंदा करते हैं क्योंकि वे उस के दुष्कर्मों को अच्छी तरह जानते हैं ।
(१) तुहं पिया सुरा सीहू, मेरो य महूणि य ।
पज्जमि जलतीओ, वसाओ रुहिराणि य ॥ (२) सुरा मेरक- आदि पदों का अर्थ पृष्ठ १४४ पर लिखा जा चुका है ।
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(उत्तराध्ययन सूत्र ० १९/७१)