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श्री विपाक सूत्र
[अष्टम अध्याय
शास्त्रों के परिशीलन से पता चलता है कि 'मांस न खाने वाला और प्राणियों पर दया करने वाला मनुष्य समस्त जीवों का आश्रयस्थान एव . विश्वासपात्र बन जाता है, उस से संसार में किसी प्रकार का उद्वेग नहीं होने पाता और न वह ही किसी द्वारा उद्वेग का भाजन बनता है । वह निर्भय रहता है और दीर्घायु उपलब्ध करता है । बीमारी उस से कोसों दूर रहती है। इस के अतिरिक्त मांस के न खाने से जो पुण्य उपलब्ध होता है उस के समान पुण्य न सुवर्ण दान से होता है और न गोदान एव न भमी के दान से प्राप्त हो सकता है ।
मांसाहार स्वास्थ्य को भी विशेष रूप से हानि ही पहुँचाता है। मांसाहार की अपेक्षा शाकाहार अधिक परिपुष्ट एव बुद्धिशाली बनाता है । एक बार-मांसभक्षण करना अच्छा है या बुरा ?-इस बात की परीक्षा अमेरिका में दस हज़ार विद्याथियों पर की गई थी। पांच हजार विद्यार्थी शाक.
न शादि पर रखे गये थे जब कि पांच हजार विद्यार्थी मांसाहार पर। छ: महीने तक यह प्रयोग चाल रहा । इस के बाद जो जांच की गई उससे माला
इस क बाद जा जाच का गई उससे मालूम हा कि जो विद्यार्थी मांसाहार पर रखे गये थे उन की अपेक्षा शाकाहारी विद्यार्थी सभी बातों में अग्रेसर - तेज़ रहे । शाका - हारियों में दया, क्षमा आदि मानवोचित गुण अधिक परिमाण में विकसित हुए तथा मांसाहारियों की अपेक्षा शाकाहारियों में बल अधिक पाया गया और उन का विकास भी बहुत अच्छा हुआ । इस परीक्षा के फल को देख कर वहां के लाखों मनुष्यों ने मांस खाना छोड़ दिया।
इस के अतिरिक्त आप पक्षियों पर दृष्टि डालिए । क्या आप ने कभी कबूतर को कीड़े खाते देखा है ? उत्तर होगा - कभी नहीं, परन्तु कौवे को ?. उत्तर होगा - हां !. अनेकों बार । श्राप कबतर बनना पसन्द करते हैं या कौवा १, इस का उत्तर सहृदय पाठकों पर छोड़ता है ।
ऊपर के विवेचन से यह सिद्ध हो जाता है कि मांसभक्षण किसी भी प्रकार से प्रा. दरणीय एवं आचरणीय नहीं है, प्रत्युत वह हेय है एवं त्याज्य है । अतः मांस खाने वाले मनुष्यों से हमारा सानुरोध निवेदन है कि इस पर भली भांति विचार करें और मनुष्यता के नाते, दया और न्याय के नाते, शरीरस्वास्थ्य और धर्मरक्षा के नाते तथा नरकगति के भीषणातिभीषण असह्य संकटों से अपने को सुरिक्षत रखने के नाते इन्द्रियदमन करते हुए मांसाहार को सर्वथा छोड़ डालें और सब जीवों को दानों में सर्वश्रेष्ठ अभयदान-दे कर स्वयं अभयपद -निवाणपद उपलब्ध करने का स्तुत्य एवं सुखमूलक प्रयास करें ।।
जिस प्रकार मांस दुर्गतिप्रद एवं दुःखमूलक होने से याज्य है, ठीक उसी प्रकार मदिरा का सेवन भी मनुष्य की प्रकृति के विरुद्ध होने से हेय है, अनादरणीय है। मदिरा पीने वाले मनुष्यों की जो दुर्दशा होती है उसे आबालवृद्ध सभी जानते ही हैं, अत: उस के स्पष्टीकरण करने के लिए किसी प्रमाण की अवश्यकता नहीं रहती । मदिरा को उर्दू भाषा में शराब कहते है। शराब शब्द दो पदों
(१) शरण्यः सर्वभूतानां, विश्वास्यः सर्वजन्तुषु । अनुद्वेगकरो लोके, न चाप्युद्विजते सदा ॥ अधृष्यः सर्वभूतानामायुष्मान्नीरुजः सदा । भवत्यभक्षयन् मांसं, दयावान् प्राणिनामिह ।। हिरण्यदानोदानभू मिदानश्च सर्वशः । मांसस्याभक्षणे धर्मों, विशिष्ट इति नः श्रुतिः ॥
(महा० अनु० ११५/३० -४२-४३) १२) मांसनिषेधमूलक अन्य शास्त्रीय प्रवचन पीछे ३१३ से लेकर ३१५ तक के पृष्ठों पर दिया जा चका है । तथा मांस मनुष्य की प्रकृति के नितान्त विरुद्ध है, इस सम्बन्ध में भी पृष्ठ ३९२ पर तथा ३९३ पर विचार किया जा चका है ।
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