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४१८]
श्री विपाक सूत्र
[सप्तम अध्याय
में समवाय सम्बन्ध (नित्यसंबंध) से कार्य की निष्पत्ति - उत्पत्ति हो उसे समवायी कारण कहते हैं जैसे पट (वस्त्र) का समवायी कारण तन्तु (धागे) हैं। समवायी कारण को उपादानकारण या मूलकारण भी कहा जाता है ।
कार्य अथवा कारण ! समवायी कारण ) के साथ जो एक पदार्थ में समवायसम्बन्ध से रहता है, वह असमवायी कारण कहलाता है । जैसे तन्तुसंयोग पट का असमवायी कारण है। तात्पर्य यह है कि तन्तु में तंतुसंयोग और पट ये दोनों समवायसम्बंध से रहते हैं, इसलिये तंतु - संयोग पट का असमवायी कारण कहा गया है।
समवायी और असमवायी इन दोनों कारणों से भिन्न कारण को निमित्त कारण कहा जाता है । जैसे - जुलाहा, तुरी (जुलाहे का एक प्रकार का औज़ार) आदि पट के निमित्त कारण हैं ।
प्रस्तुत में हमें उपादान और निमित्त इन दोनों कारणों का आश्रयण इष्ट है । जीव को जो सुख दुःख की उपलब्धि होती है उस का उपादान कारण उस का अपना पूर्वोपाजित शुभाशुभ कर्म है, और फल की प्राप्ति में जो भी सहायक सामग्री उपस्थित होती है वह सब निमित्त कारण से संगृहीत होती है । निमित्त कारण को अधिक स्पष्ट करने के लिये एक स्थूल उदाहरण लीजिये -
कल्पना करो, एक कुंभकार घट-घड़ा बनाता है। घट पदार्थ में मिट्टी उसका मूलकारण है, और कुम्भकार-कुम्हार, चाक, डोरी आदि सब उस में निमित्त कारण हैं । इसी भान्ति अन्य पदार्थों में भी उपादान और निमित्त इन दोनों कारणों की अवस्थिति बराबर चलती रहती है।
शास्त्रों के परिशीलन से पता चलता है कि शभाशभ कर्मफल की प्राप्ति में अनेकानेक निमित्त उपलब्ध होते हैं। उन में देव - यक्ष भी एक होता है दूसरे शब्दों में देवता भी शुभाशुभ कर्मफल के उपभोग में निमित्तकारण बन सकता है, अर्थात् देव उस में सहायक हो सकता है ।
देव की सहायता के शास्त्रों में अनेकों प्रकार उपलब्ध होते हैं कल्पसूत्र में लिखा है कि हरिणगमेषी देव ने गर्भस्थ भगवान महावीर का परिवर्तन किया था। अन्तकद्दसागसूत्र में लिखा है कि देव ने सुलसा और देवकी की सन्तानों का परिवतन किया था, अर्थात् देवकी की संतान सुलसा के पास और सुलसा की सन्ताने देवकी के पास पहुँचाई थीं । ज्ञाताधर्मकशङ्गसूत्र में लिखा है कि अभयकुमार के मित्र देव ने अकाल में मेघ बना कर माता धारिणी के दोहद को पूर्ण किया था। उपासकदशांगसूत्र में लिखा है कि देव ने कामदेव श्रावक को अधिकाधिक पीडित किया था। इस के अतिरिक्त भगवान् महावीर को लगातार छः महीने संगमदेवकृत उपसगों को सहन करना पड़ा था, इत्यादि अनेकों उदाहरण शास्त्रों में अवस्थित है । परन्तु. प्रस्तुत में गङ्गादत्ता को जीवित पुत्र की प्राप्ति में उम्बरदत्त यक्ष ने क्या सहायता की है ? इस के सन्बन्ध
(१) स्थानांगसूत्र- के पंचम स्थान के द्वितीय उद्देश्य में लिखा है कि पुरुष के सहवास में रहने पर भी स्त्री ५ कारणों से गर्भ धारण नहीं करने पाती। उन कारणों में -पुरा वा देवकम्मुणा - यह भी एक कारण माना है। वृत्तिकार के शब्दों में इस की व्याख्या-पुरा वा पूर्व वा गर्भावसरात् देवकर्मणा देवक्रियया देवानुभावेन राक्त्युपधातः स्यादिति शेषः । अथवा देवश्च कामणं च तथाविधद्रव्यसंयोगो देवकार्मणं तस्मादिति - इस प्रकार है अर्थात् गर्भावसर से पूर्व ही देवक्रिया के द्वारा गर्भधारण की शक्ति का उपघात होने से, अथवा-देव और कार्मण-तंत्र आदि की विद्या अर्थात् जादू से गर्भधारण की शक्ति के विनाश कर देने से । तात्पर्य यह है कि-देवता रुष्ट हो कर गर्भधारण की सभी सामग्री उपस्थित होने पर भी गर्भ को धारण नहीं होने देता। इस वर्णन में देवता शभाशभ कर्म के फल में निमित्त कारण बन जा सकता है-यह सुतरां प्रमाणित हो जाता है।
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