________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir
अथ अष्टम अध्याय
ज्ञानी और अज्ञानी की विभिन्नता का दिग्दर्शन कराते हुए सूत्रकार ने लिखा है कि शानी वही कहला सकता है जो अहिसक' है, अर्थात् हिंसाजनक कृत्यों से दूर रहता है । अज्ञानी वह है जो अहिंसा से दूर भागता है और अपने जीवन को हिंसक और निदयतापूर्ण कार्यों में लगाये रखता है। ज्ञानी और अज्ञानी के विभेद के कारण भी विभिन्न हैं । ज्ञानी तो यह सोचता रहेगा कि जो अपने जीवन को सुरक्षित रखना चाहता है, वह दूसरों के जीवन का नाश किस तरह से कर सकता है ?, क्योकि विचारशील व्यक्ति जो कुछ अपने लिये चाहता है वह दूसरों के लिये भी सोचता है । तात्पर्य यह है कि मनुष्यता का यही अनुरोध है कि यदि तुम सुखी रहना चाहते हो तो दूसरों को भी सुखी बनाने का उद्योग करो १, इसी में आत्मा का हित निहित है, विपरीत इसके अज्ञानी यह सोचेगा कि वह स्वयं सुखी किस तरह से हो सकता है ?. उसका एक मात्र ध्येय स्वार्थपर्ति होता है, कोई मरता है तो मरे, उसे इसकी पर्वाह नहीं होती कोई उजडता है तो उजड़े उसकी उसे चिन्ता नहीं होने पाती। उसे तो अपना प्रभुत्व और ऐश्वर्य कायम रखने की ही चिन्ता रहती है । इस के अतिरिक्त ज्ञानी जहां परमार्थ की बातें करेगा वहां अज्ञानी अपने ऐहिक स्वार्थ का राग आलापेगा । फलस्वरूप ज्ञानी आत्मा कर्मबन्ध का विच्छेद करता है जब कि अज्ञानी कर्म का बन्ध करता है ।
प्रस्तुत अष्टम अध्ययन में शौरिकदत्त नामक एक ऐसे अज्ञानी व्यक्ति के जीवन का वर्णन है जो अपने अज्ञान के कारण श्रीद रसोईए के भव में अनेकविध मूक पशुओं के जीवन के नाश करने के अतिरिक्त मांसाहार एवं मदिरापान जैसी दुर्गतिप्रद जघन्य प्रवृत्तियों में अधिकाधिक पापपुज एकत्रित करता है, और फलस्वरूप तीव्रतर अशुभकर्मों का बन्ध कर लेता है और उन का फल भोगते समय अत्यधिक दु:खी होता है। सूत्रकार उसका प्रारम्भ इस प्रकार करते हैं
मृल-अट्ठमस्स उक्खेवो । एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं २ सोरियपुरंणगरं होत्था । सोरियवडिंसगं उज्जाणं । सोरियो जक्खो । सोरियदत्ते राया। तस्स णं सोरिय पुरस्स णगरस्स बहिया उत्तरपुरस्थिमे दिसीभाएं एगे मच्छवन्धयाडा होत्था । तत्थ णं समुद्ददत्ते नाम (१) एवं खु नाणिणो सारं, जं न हिंसइ किंचण।
अहिंसासमयं चेव, एयावंतं वियाणिया || (सूयगडांगसूत्र, १-४-१०) ।
अर्थात् किसी जीव को न मारना यही ज्ञानी पुरुष के ज्ञान का सार है । अतः एक अहिंसा द्वारा ही समता के विज्ञान को उपलब्ध किया जा सकता है। जैसे मु के दुख अप्रेय है, वैसे दूसरे प्राणियों को भी वह अप्रिय है, इन्हीं भावों का नाम समता है।
(२) जीवितं यः स्वयं चेच्छेत् , कथं सोऽन्यं प्रघातयेत् । यद् यदात्मनि चेच्छेत् . तत्परस्यापि चिन्तयेत् ।
(३) छाया-अष्टमस्योत्क्षेपः । एवं खलु जम्बू · ! तस्मिन् काले २ शौरिकपुरं नगरमभवत् । शौरिकावतंसकमुद्यानम् । शौरिको यक्षः । शौरिकदत्तो राजा । तस्मात् शौरिकपुराद् नगराद् बहिः उत्तरपौरस्त्ये दिग्भागे एको मत्स्यबन्धपाटकोऽभूत् । तत्र समुद्रदत्तो नाम मत्स्यबन्धः परिवसति, अधार्मिको यावद् दुष्प्रत्यानन्दः । तस्स समुद्रदत्तस्य समुद्रदत्ता भार्याऽभूदहीनः । तस्य समुद्रदत्तस्य मत्स्यबन्धस्य पुत्रः समद्रदत्ताया भार्याया आत्मजः शौरिकदत्तो नाम दारकोऽभवदहीन ।
हसइ किचण।
For Private And Personal