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३८०]
श्री विपाक सूत्र
[सप्तम अध्याय
उसे लालाप्रगलत्कर्णनास कहते हैं।
कहीं पर - लालामुहं पगलंतकरणनासं-ऐसा पाठान्तर भी मिलता है। इस का अर्थ निम्नोक्त है
१-लालामुख - जिस का मुख लाला अर्थात् लार से युक्त रहता है, उसे लालामुख कहते हैं । तात्पर्य यह है कि उस व्यक्ति के मुख से लारें बहुत टपका करती थीं।
२-प्रगलत्कर्णनास-जिस के कान और नासिका बहुत गल चुके थे, ऐसा व्यक्ति प्रगलत्कर्णनास कहलाता है।
१८-पूयकवल-पय-पीब को कहते हैं । कवल शब्द-१-उतनी वस्तु जितनी एक बार में खाने के लिये मुंह में रखी जाये, ग्रास, तथा २-पानी आदि उतना पदार्थ जितना मुंह साफ़ करने के लिये एक बार मुंह में लिया जाये कुल्ली, इन दो अर्थों का परिचायक है । पीब के कवल को पूयकवल और इसी भान्ति रुधिर-खून के कवल को रुधिरकवल, तथा कृमियों - कीड़ों के कवल को कृमिकवल कहते हैं।
१९- कष्ट-क्लेशोत्पादक -- इस अर्थ का बोध कराने वाला कष्ट शब्द है।
२०-करुण-करुणा शब्द उस मानसिक दुःख का परिचायक है जो दूसरों के दुःख के ज्ञान से उत्पन्न होता है और उनके दुख को दूर करने की प्रेरणा करता है । अर्थात् दया का नाम करुणा है । करुणा को उत्पन्न कराने वाला करुण कहलाता है।
२१-विस्वर-दीनतापूर्ण वचन विस्वर कहलाता है, अथवा खराब आवाज़ को विस्वर कहा जाता है, अर्थात् उस पुरुष को अावाज़ बड़ी दीनतापूर्ण थी अथवा बड़ी कर्णकटु थी।
प्रस्तुत में-कट्ठाई कलुणाइ वीसराई- इन पदों के साथ - वयणाई - इस विशेष्य पद का अध्याहार किया जाता है । तब-कष्टोत्पादक वचन, करुणोत्पादक वचन एवं विस्वर वचन -- कूजत् अर्थात् अव्यक्त रूप से बोलता हुआ, यह अर्थ निष्पन्न होता है ।
२२-मक्षिकाओं के चडगर पहगर से अन्धीयमानमार्ग-अर्थात् मक्षिका मक्खी का नाम है। चडगर और पहगर ये दोनों शब्द कोषकारों के मत में देश्य - देशविशष में बोले जाने वाले हैं। इन में चडगर शब्द प्रधानार्थक और पहगर शब्द समूहार्थक है। अन्धीयमानमार्ग शब्द-जिस के पीछे २ चल रहा है वह, -इस अर्थ का परिचायक है । अर्थात् जिस के पीछे २ मक्षिकात्रों का प्रधान-विस्तार वाला समूह चला आ रहा है वह, अथवा मक्षिकाओं के वृन्दों- समूहों. के पहकर-समूह जिस के पीछे चले आ रहे हैं वह । तात्पर्य यह है कि उस व्यक्ति के पीछे मक्षिकाओं के झुण्ड के झुण्ड लगे हुए थे ।
२३-फुद्दहडाहडसीसे-इस पद को व्याख्या अभय देवसूरि के शब्दों में -फुट-त्ति स्फुटितकेशसंचयत्वेन विकीर्ण केशं "हडाहर्ड" ति अत्यर्थ शी शिरो यस्य स तथा- इस प्रकार है । अर्थात् केशसंचय (वालों की व्यवस्था) के स्फुटित-भंग हो जाने से जिस के केश बहुत ज़्यादा बिखरे हुए हैं, उस को स्फुटितात्यर्थशीर्ष कहते हैं । हडाहड-- यह देश्य – देशविशेष में बोला जाने वाला पद है, जो कि अत्यर्थ का बोधक है।
श्रद्धेय पं० मुनि श्री घासीलाल जी म. के शब्दों में इस पद की व्याख्या-स्फुटद् हडाहङ
(१) मक्षिकाणां प्रसिद्धानां चटकरः प्रधान: विस्तारवान् यः प्रहका: समूहः स तथा, अथवा-मक्षिकाणां चटकराणां तद्वृन्दानां यः प्रहकरः स तथा, तेन । अन्वीयमानमार्गमनुगम्यमानमार्गम् । मलाविलो हि वस्तु प्रायो मतिकाभिरनुगम्यत एवेति भावः । (वृत्तिकारः)।
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