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३८६)
श्री विपाक सूत्र
[सप्तम अध्याय
" _ उसी तरह अर्थात् बेले के पारणे के दिन प्रथम प्रहर में स्वाध्याय करते हैं, द्वितीय प्रहर में ध्यान करते हैं-श्रादि भावों का परिचायक है । तथा जाव-यावत् पद से पृष्ठ १२२ तथा १२३ पर लिखे हुए "-पढमाए पोरिसीए सज्झायं करेइ-से लेकर-पुरओ रियं सोहेमाणे- इत्यादि पदों का ग्रहण समझना चाहिये।
-कच्छ-तथा-चउत्थं पिछट्ट०-यहां का प्रथम बिन्दु पृष्ठ ३७६ पर उल्लिखित हुए_ल्लं कोढियं- इत्यादि पदों का संसूचक है । तथा दूसरे बिन्दु से संसूचित पाठ ऊपर लिखा जा चुका है । तथा-उत्तरेणं० - यहां के बिन्दु से-दुवारेणं अणुप्पविसमाणे तं चेव पुरिसं कच्छुल्लं जाव पासति पासित्ता-इन पदों का ग्रहण करना चाहिये ।
-अज्झथिए ५ समुप्पन्ने – यहां पर दिये गये ५ के अक से विवक्षित पाठ की सचना पृष्ठ १३३ पर की जा चुकी है । तथा-पोराणाणं जाव एवं वयासी- यहां पठित जावयावत् पद पृष्ठ २१० पर लिखे गये-दुच्चिराणाणं दुप्पडिक्कन्ताण-इत्यादि पदों का परिचायक है । अन्तर मात्र इतना है कि वहां पुरिमताल नगर का उल्लेख है, जब कि प्रस्तुत में पाटलिपंड का ।
"-पारणयंसि जाव रीयन्ते-" यहां पठित जाव-यावत् पद से - तुब्भेहिं अब्भणुराणाए समाणे पाडलिसंडे णगरे उच्चनीयमज्झिमाणि कुलाणि घरसमुदाणस्स भिवायरियाए-इन पदों का ग्रहण करना चाहिये । अर्थात् यावत् पद-आप श्री से अाज्ञा प्राप्त किया हुआ मैं पाटलिषंड नगर के उच्च-धनी, नीच-निर्धन और मध्यम-न नीच तथा न उच्च अर्थात् साधारण कुलों के सभी घरों में भिक्षा के लिये-इन भावों का परिचायक है।
"-कच्छुल्लं जाव कप्पेमाणं-" यहां पठित जाव- यावत् पद से पृष्ठ ३७६ पर पढ़े गए"- कोढियं दाोयरियं-" से लेकर " -देहंबलियाए वित्ति-" इन पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है। तथा "-चिन्ता-" शब्द से पृष्ठ २५० पर पढ़े गये "-- अहो ण इमे पुरिसे पुरा पोराणाणं दुच्चिरणाणं दुप्पडिक्कन्ताणं-" से ले कर "-नरयपडिरूवियं वेयणं वेति - " यहां तक के पदों का ग्रहण करना चाहिये ।
- पव्वभवपच्छा-" यह पद पृष्ठ ५१ पर पढ़े गए "-से गं भते ! पुरिसे पुथ्वभवे के आसि १-" से लेकर "-पुरा पोराणाणं जाव विहरति-" यहां तक के पदों का परिचायक है ।
अब गौतम स्वामी के पूर्वभवसम्बन्धी प्रश्न के उत्तर में भगवान् ने जो कुछ फ़रमाया है । अग्रिमसूत्र में उस का वर्णन किया जाता हैमूल-'एवं खलु गोतमा ! तेणं कालेणं तेणं समएणं इहेब जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे
(१) छाया-एवं खलु गौतम ! तस्मिन् काले तस्मिन् समये इहैव जम्बूद्वीपे द्वीपे भारते वर्षे विजयपुरं नाम नगरमभूद् , ऋद्धः । तत्र विजयपुरे नगरे कनकरथो नाम राजाऽभूत् । तस्य कनकरथस्य राज्ञो 'धन्वन्तरि म वैद्योऽभूत् , अष्टांगायुर्वेदपाठक: , तद्यथा-१-कौमारभृत्यं, २-शालाक्यं, ३- शाल्यहत्यं, ४ - कायचिकित्सा, ५ - जांगुलं, ६-भूतविद्या, ७ - रसायनं, ८-वाजीकरणम् । २शिवहस्तः , शुभहस्त:,
(१) धनुः शल्यशास्त्र, तस्य अन्तं पारम् , दयति गच्छतीति धन्वन्तरिः । अर्थात् धनु शल्यशास्त्र (अस्त्रचिकित्सा का विधायक शास्त्र ) का नाम है । उस के अन्त-पार को उपलब्ध करने वाला व्यक्ति धन्वन्तरि कहलाता है। (सुश्रुतसंहिता )
(२) शिवहस्त:-शिवं कल्याणं आरोग्यमित्यर्थः, तद् हस्ते यस्य स तथा, तस्य हस्तस्पर्शमात्रण रोगीरोगमुक्तो भवतीति भावः। शुभहस्त:-सुखहस्तो वा, शुभं सुखं वा हस्ते हस्तस्परों यस्य स तथा । लघहस्तः-लघः-व्रणचीरणशलाकादिक्रियास दक्षो हस्तो यस्य स तथा. हस्तलाघवसम्पन्नः ।
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