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सप्तम अध्याय ]
हिन्दी भाषा टीका सहित ।
आज्ञा दे देता है। तते णं-तदनन्तर । सा-वह । गंगादत्ता-गंगादत्ता । सागरदत्तेणं-सागरदत्त । सत्यवाहेणं- सार्थवाह से । अब्भणुए णोया समाणी -अभ्यनुज्ञात हुई अर्थात् आजा प्राप्त कर के । विपुलं - विपुल । असणं ४ - अशमादिक । उवक्वड़ावेति २- तैयार कराती है, तैयार करा कर । तं-उस। विपल - विपुल । असण ४ - अशनादिक और । सुरच ६ -सुरा आदि छः प्रकार के मद्यों का। सुबहुं-बहुत ज़्यादा। पुफ्फ. पुष्पादिक को । परिगेराहावेति २- ग्रहण कराती है, कराकर । बहूहि-अनेक । जाव यावत् । राहाया - स्नान कर कय -अशुभ स्वप्नादि के फल को विफल करने के लिये मस्तक पर तिलक तथा अन्य मांगलिक कार्य करके । जेणेव-जहां पर । उंबरदत्त. जक बाययणे-उम्बरदत्त यक्ष का आयतन - स्थान था । जाव - यावत् । धूवं-धूप । डहति २जलाती है, जला कर । जेणेव-जहां । पुक्वरिणी-पुष्करिणी थी । तेणेव-वहां पर । उवागता-श्रा गई । तते ण-तदनन्तर । ताप्रो-वे। मित्त०-मित्रादि की। जाव - यावत् । महिलाओ - महिलाएं। गंगादत्तं-गंगादत्ता। सत्यवाहि-सार्थवाही को । सव्वालंकारविभूसियं-सर्व प्रकार से आभूषणों द्वारा अलंकृत । करेंति-करती हैं । तते ण- तदनन्तर । सा-वह । गंगादत्ता-- गंगादत्ता । ताहिउन। मित्त-मित्रों, ज्ञातिजनों, निजकजनों, स्वजनों, सम्बन्धिजनों और परिजनों की । च-तथा। अन्नाहि-अन्य । बहूहि-बहुत सी । णगरमहिलाहिं-नगर की महिलाओं के । सद्धिं-साथ । तंउस । विपुलं-विपुल । असणं ४-अशनादिक चतुर्विध आहार । च-तथा । सुर६-छः प्रकार की सुरा आदि का। प्रासाएमाणी ४-आस्वादनादि करती हुई । दोहदं -दोहद को। विणेति-पूर्ण करती है, दोहद की पूर्ति के अनन्तर । जामेव दिसं जिस दिशा से । पाउन्भूता-आई थी। तामेव दिसंउसी दिशा को । पडिगता--चली गई । तते णं- तदनन्तर । सा गंगादत्ता-वह गंगादत्ता। भारियाभार्या । संपुण्णदोहला ४ – सम्पूर्णदो दा--जिसका दोहद पूर्ण हो चुका है, सम्मानितदोहदा -- सम्मानित दोहद वाली, विनीतदीहदा विनीत दोहद वाली, व्युच्छिन्नदोहदा - व्यछिन्न दोहद वाली तथा सम्पन्नदोहदासम्पन्न दोहद वाली । तं-उस । गभं-गर्भ को । सुहसुहेण-सुखपूर्वक । परिवहति-धारण कर रही है, अर्थात् गर्भ का पोषण करतो हुई सुखपूर्वक समय बिता रही है।
मूलार्थ-तदनन्तर वह धन्वन्तरि वैद्य का जीव नरक से निकल कर इसी पाटलिषण्ड नगर में गंगादत्ता भार्या को कुति- उदर में पत्ररूप से उत्पन्न हुअ अथात् पुत्ररूप से गंगादत्ता के गर्भ में आया । लगभग तीन मास पूरे हो जाने पर गंगादत्ता श्रष्ठिभार्या को यह निम्नोक्त दोहद - गर्मिणी स्त्री का मनोरथ उत्पन्न हुआ
धन्य हैं वे माताए यावत् उन्होंने ही जोवन के फल को प्राप्त किया है जो महान् अशनादिक तैयार करवाती हैं और अनेक मित्र ज्ञाति आदि की महिलाओं से परिवृत हो कर उस विपुल अशनादिक तथा पुष्पादि को साथ ले कर पाटलिषण्ड नगर के मध्य में से निकल कर पुष्करिणी पर जाती हैं, वहां-पुष्करिणो में प्रवेश कर जलस्नान एवं अशुभ स्वप्नादि के फल को विफल करने के लिए मस्तक पर तिलक एवं अन्य मांगलिक कार्य करके उस विपुल अशनादिक का मित्र, ज्ञातिजन आदि को महिलाओं के साथ आस्वादनादि करती हुई अपने दोहद को पूर्ण करती हैं।
इस तरह विचार कर प्रातःकाल तेज से देदीप्यमान सूर्य के उदित हो जाने पर वह सागरदत्त माताएं के पास आती है, आकर सागरदत्त सार्थवाह से इस प्रकार कहने लगी कि हे स्वामिन् ! वे सार्थवाह धन्य हैं, यावत् जो दोहद को पूर्ण करती हैं। अतः मैं भी अपने दोहद को पूर्ण करना
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