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४१२]
श्री विपाक सूत्र
सप्तम अध्याय
चाहती हूं।
तब सागरदत्त सार्थवाइ इस गत के लिए अर्थात् दोहद की पूति के लिए गंगादत्ता को आज्ञा दे देता है। सागरदत्त सेठ से आज्ञा प्राप्त कर गंगादत्ता पर्याप्त मात्रा में अशनादिक चतुर्विध आहार की तैयारी करवाती है और उपस्कृत आहार एवं ६ प्रकार की सुरा आदि पदार्थ तथा बहुत सी पुष्यादिरूप पूजा मामग्रो ले कर मित्र, ज्ञातजन आदि की तथा और अन्य महिलाओं को साथ लेकर यावत् स्नान एवं अशुभ स्वप्नादि के फल को विनष्ट करने के लिए मस्त पर तिलक एवं अन्य मांगलिक अनुष्ठान करके उम्बरदत्त यक्ष के मन्दिर में आ जातो है । वहां पूर्व की भान्ति पूजा कर धूप धुवाती है । तदनन्तर परिणी- बावड़ी में आ जाती है। वहां पर साथ में अग्ने वाली मित्र ज्ञाति आदि की महिलाएँ गंगादत्ता को सर्व अलंकारों से विभूषित करती हैं, तत्पश्चात् उन मित्रादि की महिलाओं तथा अन्य नगर को महिलाओं के साथ उस विपुल अशनादिक तथा पड्विध सुरा आदि का आस्वादनादि करती हुई गंगादत्ता अपने दोहद की पूर्ति करती है। इस प्रकार दोहद को पूर्ण कर वह वापिस अपने घर को आगई ।
तदनन्तर सम्पूणेदोहदा, सम्मानितदोहदा, विनीतदोहदा, व्युच्छिन्नदोहदा, सम्पन्नदाहदा वह गंगादत्ता उस गर्भ को सुग्वपूर्वक धारण करतो हुई सानन्द ममय बिताने लगो ।
टीका- भगवान् महावीर स्वामी कहने लगे कि गौतम ! जिस समय गंगादत्ता उक्त प्रकार का संकल्प करती है, उस समय वह धन्वन्तरि वैद्य का जीव नरकसम्बन्धी दुःसह वेदनात्रों को भोगकर नरक की आयु को पूर्ण करके वहां से सीधा निकल कर इसी पाटलिषंड नगर में, नगर के प्रतिष्ठित सेठ सागरदत्त की गंगादत्ता भार्या के गर्भ में पुत्ररूप में उत्पन्न हुअा, और वह वहां पुष्ट होना लगा, अथच वृद्धि को प्राप्त करने लगा।
सेठानी गंगादत्ता की कुक्षि में आये हुए धन्वन्तरि वैद्य के जीव को जब तीन मास होने लगे तो उसे जो दोहद उत्पन्न हुआ उस का तथा उसकी पूर्ति का उल्लेख मूलार्थ में कर दिया गया है । जो कि अधिक विवेचन की अपेक्षा नहीं रखता । गर्मिणी स्त्री को गर्भ के अनुरूप जो संकल्पविशेष उत्पन्न होता है, उसे शास्त्रीय परिभाषा में दोहद कहते हैं ।
"-ताओ अम्मयानो जाव फले -” यहां पठित जाव-यावत् पद पृष्ठ ३९६ पर पड़े गये "-सपुराणाओ णं ताओ अम्मया रो, कयत्थाओ णं तारो अम्मया रो, कयलक्षणाओ णं तारो अम्मयामो तासिं च अम्मयाणं सुनद्ध जम्मजीविय-" इन पदों का परिचायक है ।
-मित्त. जाव परिवडायो - यहा पठित जाव-यावत पद से -गाइ-णियग सयणसम्बन्धि-परिजण-महिलाहिं- इन पदों का ग्रहण समझना चाहिये । इन का अर्थ है मित्रों, ज्ञातिजनों, निजकजनों, स्वजनों, सम्बन्धिजनों एवं परिजनों की महिलाओं से । तथा – मित्र श्रादि पदों की व्याख्या पृष्ठ १५० के टिप्पण में की जा चुकी है।।
-पुष्फ० जाव गहाय – यहां पठित जाव-यावत् पद से - वत्थगन्धमल्लालंकारं --- इस पाठ का तथा - राहाया जाव पायच्छित्ताओ- यहां पठित जाव - यावत् पद से - कयबलिकम्मा कयकोउयमंगल - इन पदों का ग्रहण करना चाहिये । -कयबलिकम्मा -आदि पदों का अर्थ पृष्ठ १७६ तथा १७७ पर किया जा चुका है। अन्तर मात्र इतना है कि वहां ये पद एक पुरुष के विशेषण हैं, जब कि प्रस्तुत में अनेक स्त्रियों के। अतः लिंगगत तथा वचनगत अर्थभेद की भावना कर लेनी चाहिये है ।
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