________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir
सप्तम अध्याय]
हिन्दी भाषा टीका सहित।
[३९१
दु:खी व्यक्ति के पूर्वभव की पृच्छा की है।
प्रस्तुत सूत्र में विजयपुर नगर के नरेश कनकरथ के राजवैद्य धन्वन्तरि के आयुर्वेदसम्बन्धी विशदज्ञान के वर्णन के साथ २ उसकी चिकित्साप्रणाली का उल्लेख करने बाद उसकी हिसा - परायण मनोवृत्ति का परिचय करा दिया गया है। जिस मनुष्य में हिंसक मनोवृत्ति की इतनी अधिक
और व्यापक मात्रा हो, उस के अनुसार वह कितने क्रिष्ट कर्मों का बन्ध करता है ! यह समझना कुछ कठिन नहीं है।
धन्वन्तरि के जीव ने अपने हिसांप्रधान चिकित्सा के व्यवसाय में पुण्योपार्जन के स्थान में अधिक से अधिक मात्रा में पापपुज को एकत्रित किया अर्थात् २मत्स्य आदि अनेक जाति के निरपराध मूकप्राणियों के प्राणों का अपहरण करने का उपदेश देकर और उनके मांसपिंड से अपने शरीरपिंड का संवर्द्धन करके जिस पापराशि का संचय किया, उसका फल नरकगति की प्राप्ति के अतिरिक्त और हो ही क्या सकता है ?, इसीलिये सूत्रकार ने मृत्यु के बाद उसका छठी नरक में जाने का उल्लेख किया है।
सूत्रकार ने धन्वन्तरि वैद्य का जो मांसाहार तथा मांसाहारोपदेश से उपार्जित दुष्कर्मा के फलस्वरूप २२ सागरोपम तक के बड़े लम्बे काल के लिये छठी नरक में नारकीय रूप से उत्पन्न होने का कथानक लिखा है, इस से यह स्पष्ट सिद्ध हो जाता है कि मांसाहार दुर्गतियों का मूल है
और नाना प्रकार के नारकीय अथच भीषण दुःखों का कारण बनता है, अतः प्रत्येक सुखाभिलाषी मानव का यह सर्वप्रथम कर्तव्य बन जाता है कि वह मांसाहार के जघन्य तथा दुर्गतिमूलक आचरण से सर्वथा विमुख एवं विरत रहे ।
मांसाहार दुःखों का स्रोत होने से जहां हेय है, त्याज्य है, वहां वह शास्त्रीय दृष्टि से गहित है, निंदित है एवं उसका त्याग सुगतिप्रद होने से अादरणीय एवं आचरणीय है, यह पूर्व पृष्ठ ३१३ से ले कर ३१५ में बतलाया जा च का है । इस के अतिरिक्त मांस मनुष्य का प्राकृतिक भोजन नहीं है अर्थात् प्रकृति ने मनुष्य को निगमिषभोजी बनाया है, न कि आमिषभोजी । निरामिषभोजी तथा आमिषभोजी
(१) प्रस्तुत कथासन्दर्भ में जिस धन्वन्तरि वैद्य का वर्णन किया गया है और वैद्यकसंसार के लब्धप्रतिष्ठ वैद्यराज धन्वन्तरि ये दोनों एक ही थे ? या भिन्न २ १, यह प्रश्न उत्पन्न होता है । इसका उत्तर निम्नोक्त है
यह ठीक है कि नाम दोनों का एक जैसा है, परन्तु फिर भी यह दोनों भिन्न २ थे, क्योंकि इन दोनों के काल में बड़ी भिन्नता पाई जाती है । महाराज कनकरथ के राजवैद्य धन्वन्तरि अपने हिंसापूर्ण एवं करतापूर्ण मांसाहारोपदेश अोर मांसाहार तथा मदिरापान जैवी जयन्यतम प्रवृत्तियों के कारण छठी नरक में २२ सागरोपम' जैसे बड़े लम्बे काल तक नारकीय भीषणातिभीषण यातनात्रों का उपभोग कर लेने के अनन्तर पाटलिषंड नगर के सेठ सागरदत्त की सेठानी गंगादत्ता के उदर से उम्बरदत्त के रूप में उत्पन्न होते हैं. जब कि वैदिक मान्यतानुसार देवों और दैत्यों के द्वारा किए गये समुद्रमन्थन से प्रादुर्भूत हुए वैद्यकसंसार के वैद्यराज धन्वन्तरि को अभी इतना काल ही नहीं होने पाया। इस लिए दोनों की नामगत समानता होने पर भी व्यक्तिगत भिन्नता सुतरां प्रमाणित हो जाती है ।
(२) मत्स्य आदि पशुओं के नाम तथा उन मांसों के उपदेश का सविस्तर वर्णन मूलाथ पृष्ठ ३८९ तथा ३९० पर किया जा चुका है ।
(१) सागरोपम शब्द की व्याख्या पृष्ठ २७४ तथा २७५ की टिप्पण में की जा चुकी है ।
For Private And Personal